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स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(25) हव्यवाहः प्रमथ्नाति, जीर्णं काष्ठं यथा ध्रुवम्।
तथा कर्म प्रमथ्नाति, मुनिरात्मसमाहितः।।

जिस प्रकार अग्नि जीर्ण काष्ठ को भस्म कर डालती है उसी प्रकार समाधियुक्त आत्मा वाला मुनि कर्मों को भस्म कर डालता है।

जं अण्णाणी कम्मं खवेई बहुयावि वाससयसहस्सेहिं।
तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेई उच्छासमेत्तेण।।

अज्ञानी को जिन कर्मों के क्षय करने में लाखों वर्ष लगते हैं, वहाँ मनोवाक्काय से संयमित ज्ञानी उन कर्मों को श्वास मात्र में क्षय कर देता है। इससे संयम-संवर या निवृत्ति की महत्ता स्पष्ट अभिलक्षित होती है। महत्त्व क्रिया का नहीं है। महत्त्व है संयमयुक्त क्रिया का। यह सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के हृदय-पटल पर अंकित रहना चाहिए। योगों (मन, वचन, काय) से संयम (गुप्ति) के अभाव में कष्ट बहुत उठाया जाता है, किंतु सार बहुत कम निकलता है। समग्र साधना-पद्धति प्रवृत्तियों के संयमन की है। आत्मशासित साधक वह होता है जो बाहर से सर्वथा संयमित होकर आत्म-ध्यान में प्रतिष्ठित हो गया है। जिसने पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान की यात्रा का अंत कर रूपातीत की यात्रा शुरू कर दी है, जिसके ध्यान के लिए अब बाहर के विषय-अवलंबन छूट चुके हैं। वह आत्म-समाधि-संपन्न साधक कर्मों को इतनी शीघ्रता से भस्मसात् कर देता है, जैसे कि अग्नि सूखे काष्ठ को क्षणभर में ही भस्मसात् कर देती है।

(क्रमशः)