संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(26) कर्मानुभावतो जीवः, नानागतिसु गच्छति।
परोक्षे द्वे प्रविद्येते, संशयस्तत्र जायते।।

कर्म के अनुभाव से जीव नाना गतियों में परिभ्रमण करता है। नरक और स्वर्ग-ये दो परोक्ष हैं। परोक्ष के विषय में संशय उत्पन्न हो जाता है। संशय का क्षेत्र प्रत्यक्ष नहीं है। मनुष्य और तिर्यंच गति जैसे प्रत्यक्ष है वैसे नरक और देव गति नहीं है। हालाँकि मनुष्य व तिर्यंच गति भी स्थूल रूप से प्रत्यक्ष है, सूक्ष्म रूप से नहीं। इनमें भी संशय के कई कारण बन सकते हैं। नरक और देव परोक्ष होते हुए भी कुछ-कुछ स्थितियों में प्रत्यक्ष जैसे परिचय करा देते हैं। सूक्ष्म शरीर के फोटो, सूक्ष्म जगत की विचित्र विचित्र घटनाएँ पूर्वजन्म की स्मृतियाँ, सूक्ष्म-शरीरों की स्थूल शरीर जैसी चेष्टाएँ तथा अनुकूल व्यक्तियों का सहयोग व प्रतिकूलों का सहयोग आदि ऐसे कर्तव्य हैं जिनसे उनके अस्तित्व का स्पष्ट बोध हो जाता है।
प्रत्यक्षद्रष्टा-आत्मज्ञानी आप्तपुरुषों का सहवास अथवा उनका उपदेश भी संशय के निराकरण में हेतु बनता है। आत्मद्रष्टाओं के लिए कुछ भी अप्रत्यक्ष नहीं है। वे सब कुछ सहज देखते हैं और जैसा देखते हैं वैसा ही निरूपण करते हैं। विश्वास या श्रद्धा के वे ही एकमात्र केंद्र होते हैं। इसलिए कहा है-‘वह सत्य है, निःशंकित है, परिपूर्ण है, अनुत्तर है, जिसका निरूपण जिनों-आत्मद्रष्टाओं ने किया है।’ भगवान् महावीर इसी संदेह की निवृत्ति के लिए मेघ से कह रहे हैं कि ‘नरक नहीं है, स्वर्ग नहीं है’ इस प्रकार ‘संज्ञा’ अवधारणा या कल्पना न करे।’ वे हैं यह असंदिग्ध है। इसका कारण है-तदनुरूप कर्मों का विपाक, फल। सत्कर्मों का फल स्वर्ग है और असत् कर्मों का फल नरक।’ दुःख और सुख कर्म का ही अनुभाग-विपाक है।

(क्रमशः)