उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

जमाली! यह लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। लोक कभी नहीं था, नहीं है, नहीं होगा-ऐसा नहीं है। किंतु यह था, है और रहेगा। इसलिए यह शाश्वत है। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी होती है और उत्सर्पिणी के बाद फिर अवसर्पिणी। इस कालचक्र की दृष्टि से लोक अशाश्वत है। इसी प्रकार जीव भी शाश्वत और अशाश्वत दोनों है। त्रैकालिक सत्ता की दृष्टि से वह शाश्वत है। वह कभी नैरयिक बन जाता है, कभी तिर्यंच, कभी मनुष्य और कभी देव। इस रूपांतरण की दृष्टि से वह अशाश्वत है।’ जमाली ने भगवान् की बातें सुनीं पर वे अच्छी नहीं लगीं। उन पर श्रद्धा नहीं हुई। वह उठा, भगवान् से अलग चला गया। मिथ्या प्ररूपणा करने लगा-झूठी बातें कहने लगा। मिथ्या अभिनिवेश से वह आग्रही बन गया। दूसरों को भी आग्रही बनाने का जीभर जाल रचा। बहुतों को झगड़ाखोर बनाया। इस प्रकार की चर्चा चलती रही। लंबे समय तक श्रमण-वेश में साधना की। अंतकाल में एक पक्ष की संलेखना की। तीस दिन का अनशन किया। किंतु मिथ्या प्ररूपणा या झूठे आग्रह की आलोचना नहीं की, प्रायश्चित्त नहीं किया। इसलिए आयुष्य पूरा होने पर वह लांतक-कल्प (छठे देवलोक) के नीचे किल्विषिक (निम्न श्रेणी का) देव बना।

(2) जीव-प्रादेशिकवाद
दूसरे निÐव का नाम तिष्यगुप्त था। इनके आचार्य ‘वस्तु’ चतुर्दशपूर्वी थे। वे तिष्यगुप्त को आत्मप्रवादपूर्व पढ़ा रहे थे। उसमें भगवान् महावीर और गौतम का संवाद आया-
गौतम-‘भगवान्! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है?’
भगवान्-‘नहीं!’
गौतम-‘भगवान्! क्या दो, तीन यावत् संख्यात प्रदेश को जीव कहा जा सकता है?’
भगवान्-‘नहीं! असंख्यात प्रदेशमय चैतन्य पदार्थ को ही जीव कहा जा सकता है।’
यह सुन तिष्यगुप्त ने कहा-‘अंतिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं हैं। इसलिए अंतिम प्रदेश ही जीव है।’
गुरु के समझाने पर भी अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उन्हें संघ ने पृथक् कर दिया। वे जीव-प्रदेश संबंधी आग्रह के कारण जीव प्रादेशिक कहलाए।

(3) अव्यक्तवाद
श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ़ चैत्य में आचार्य आषाढ़ विहार कर रहे थे। उनके शिष्यों में योग-साधना का अभ्यास चल रहा था। आचार्य का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। आचार्य ने सोचा-शिष्यों का अभ्यास अधूरा रह जाएगा। वे फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गए। शिष्यों को इसकी जानकारी नहीं थी। योग-साधना का क्रम पूरा हुआ। आचार्य देवरूप में प्रकट हो बोले-‘श्रमणो! मैंने असंयत होते हुए भी संयतात्माओं से वंदना कराई, इसलिए मुझे क्षमा करना।’ सारी घटना सुना देव अपने स्ािान पर चले गए। श्रमणों को संदेह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव? निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह अव्यक्त मत कहलाया। आषाढ़ के कारण यह विचार चला, इसलिए इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ़ हैं, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं, पर वास्तव में इसके प्रवर्तक आषाढ़ के शिष्य ही होने चाहिए। ये तीसरे निÐव हुए।

(4) सामुच्छेदिकवाद
अश्वमित्र अपने आचार्य कौण्डिल के पास पूर्व-ज्ञान पढ़ रहे थे। पहले समय के नारक विच्छिन्न हो जाएँगे, दूसरे समय के भी विच्छिन्न हो जाएँगे, इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जाएँगे-यह पर्यायवाद का प्रकरण चल रहा था। उन्होंने एकांत समुच्छेद का आग्रह किया। वे संघ से पृथक् कर दिए गए। उनका मत ‘सामुच्छेदिकवाद’ कहलाया। वे चैथे निÐव हुए।

(क्रमशः)