मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

पहला प्रकरण

मिथ्यात्व से हमारे दृष्टिकोण में विपर्यय छा जाता है, इसलिए हम मुक्त भाव से सत्य का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते।
अव्रत के द्वारा हमारा मन आकांक्षाओं से भरा रहता है, इसलिए हम सहज स्वभाव की अनुभूति नहीं कर पाते।
प्रमाद के द्वारा आत्म-दर्शन के प्रति अलसता उत्पन्न हो जाती है, फलतः हम अपने स्वरूप की उपलब्धि के लिए जागरूक नहीं रह पाते।
कषाय के द्वारा हमारी आत्मा संतप्त रहती है इसलिए हम सहज शांति का अनुभव नहीं कर पाते।
प्रवृत्ति के द्वारा हमारी सहज स्थिरता समाप्त हो जाती है, इसलिए हम आत्म-उपलब्धि के लिए केंद्रित नहीं हो पाते।
इस प्रकार आòव के द्वारा हमारी चेतना बंधी हुई रहती है। जीवन-पथ की दीर्घ यात्रा में काल-विपाक के कारण कोई क्षण ऐसा आता है कि आत्मा में मुक्ति की भावना जाग उठती है। उसकी पूर्ति के लिए योगसाधना का सहारा लिया जाता है। उसका मुख्य हेतु संवर है, ठीक आòव का प्रतिपक्ष। आòव के द्वारा हम आत्म-स्वभाव की अनुभूति से दूर रहते हैं और संवर के द्वारा हम आत्म-स्वभाव की अनुभूति ये प्रवृत्त हो जाते हैं। जैसे ही हमें देह और आत्मा का भेदज्ञान होता है, वैसे ही हमारा मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त हो जाता है। जैसे ही हमें आत्म-स्वभाव की अनुभूति होती है, हमारी आकांक्षाओं का òोत रुक जाता है। जैसे ही हम आत्म-उपलब्धि के प्रति जागरूक होते हैं, हमारा बाह्य जगत् के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। जैसे ही हम सहज शांति के अनुभव में लीन होते हैं, हमारा मानसिक संताप विलीन हो जाता है। जैसे ही हम स्वानुभूति में निष्पंद होते हैं, हमारी प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है।
मन, वाणी और कर्म का स्पंदन होता है, तब हम बाह्य जगत् के संपर्क में रहते हैं और जब ये निष्पन्द हो जाते हैं, तब हम अंतर्जगत् या अपने स्वभाव में चले जाते हैं। इसी प्रकार संताप, आकर्षण, आकांक्षा और मिथ्या दृष्टिकोण हमें बाह्य की ओर उन्मुख करते हैं। सम्यक् दृष्टिकोण, सहज तृप्ति, सहज शांति और सहज आनंद हमें आत्मोन्मुखता ही संवर है। साधना का अर्थ ही हैµआत्मविमुखता से हटकर आत्मोन्मुख होना। यम (महाव्रत), नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि उसी की साधन-सामग्री हैं। ध्यान और समाधि संवर से भिन्न नहीं हैं। इसीलिए जैन योग में संवर ध्यान-योग का सर्वोपरि महत्त्व है।
(27) इंद्रियानिन्द्रियातीन्द्रियाणिआत्मनो लिंगम्।।
(27) इंद्रिय, मन और अतीन्द्रिय ज्ञान (योगी ज्ञान, प्रातिभ ज्ञान व प्रत्यक्ष ज्ञान) आत्मा को जानने के साधन हैं।
साधना का प्रयोजन
अध्यात्म की साधना करने वाले व्यक्ति का मन स्वस्थ रहता है। मन स्वस्थ रहता है, इसका अर्थ है कि शरीर भी स्वस्थ रहता है। शरीर स्वस्थ रहता है, इसका अर्थ है कि इंद्रियाँ निर्मल रहती हैं। बुद्धि भी निर्मल रहती है। इसी प्रकार स्वास्थ्य और निर्मलताµये दोनों साधन के परिणाम हैं। ये परिणाम हैं किंतु मूलभूत प्रयोजन नहीं हैं। साधना का मूलभूत प्रयोजन हैµसत्य का साक्षात्कार।
सत्य असीम है। हमारे इंद्रिय, मन और बुद्धि की शक्ति सीमित है। हम असीम साधनों के द्वारा असीम का साक्षात्कार नहीं कर सकते।
इंद्रिय, मन और बुद्धि के ज्ञान का मूल òोत आत्मा है। उसकी चैतन्य शक्ति असीम है। उसे अनावृत्त कर हम सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं। ध्यान का स्थिर अभ्यास किए बिना हम आत्मा की चैतन्य शक्ति का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं कर सकते। इंद्रिय, मन और बुद्धि का संबंध स्थूल उपयोग नहीं कर सकते। इंद्रिय, मन और बुद्धि का संबंध स्थूल जगत् या स्थूल सत्य से होता है। उनमें सूक्ष्म सत्य तक पहुँचने की क्षमता नहीं है। ध्यान के द्वारा हम चेतना के सूक्ष्म स्तर तक चले जाते हैं। सूक्ष्म चैतन्य के द्वारा सूक्ष्म सत्य प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान का विकास साधना का मुख्य प्रयोजन है।
अतीन्द्रिय ज्ञान व आत्म-साक्षात्कार में कोई भेद नहीं है। इसे आत्मोदय भी कहा जा सकता है।
दूसरा प्रकरण
(1) मूढ़-विक्षिप्त-यातायात-श्लिष्ट-सुलीन-निरुद्धभेदाद् मनः षोढा। (2) दृष्टिचरित्रमोह-परिव्याप्तं मूढम्।। (3) अनर्हमेतद् योगाय।। (4) इतस्ततो विचरणशीलं विक्षिप्तम्।। (5) कदाचिदन्तः कदाचिद् बर्हिर्विहारि यातायातम्।। (6) प्रारंभिकाभ्यासकारिणे द्वयमिदम्।। (7) विकल्पपूर्वकं बाह्मवस्तुनो ग्रहणाद् अल्पस्थैर्यं अल्पानन्द×च।। (8) स्थिरं श्लिष्टम्।। (9) सुस्थिरं सुलीनम्।। (10) द्वयमिदं संजाताभ्यासस्य योगिनः।। (11) बाह्यवस्तुनः अग्रहणाद् दृढस्थैर्यं महानंद×च।। (12) मनोगतध्येयमेवास्य विषयः।। (13) निरालम्बनं केवलमात्मपरिणतं निरुद्धम्।। (14) इदं वीतरागस्य।। (15) सहजानंदप्रादुर्भावः।।
(1) मन छह प्रकार का होता हैµ (1) मूढ़, (2) विक्षिप्त, (3) यातायात, (4) श्लिष्ट, (5) सुलीन, (6) निरुद्ध।
(2) जो मन दृष्टिमोह (मिथ्यादृष्टि) तथा चरित्रमोह (मिथ्या आचार) से परिव्याप्त होता है, उसे मूढ़ कहा जाता है।
(3) मूढ़ संज्ञावाला मन योग-साधना के योग्य नहीं होता। जिसकी दृष्टि सम्यग् नहीं होती, जिसका चरित्र यम-नियम युक्त नहीं होता, वह व्यक्ति योग-साधना का अधिकारी नहीं होता।
(4) जो मन इधर-उधर विचरण करता रहता है, किसी एक विषय पर निश्चय नहीं रहता, उसे विक्षिप्त कहा जाता है।
(5) जो मन कभी अंतर्मुखी बनता है और कभी बहिर्मुखीµउसे यातायात कहा जाता है।
(6) विक्षिप्त और यातायात मन योग का प्रारंभिक अभ्यास करने वाले व्यक्तियों में होते हैं।
(7) इन दोनों मनोभूमिकाओं में विकल्पपूर्वक बाह्य वस्तुओं का ग्रहण होता रहता है। इसलिए इनमें स्थिरता अल्प मात्रा वाली एवं अल्पकालीन होती है तथा सहज आनंद का अनुभव भी अल्प होता है।
(8) अपने ध्येय में स्थिर बने हुए मन को श्लिष्ट कहा जाता है।
(9) जो मन अपने ध्येय में सुस्थिर बन जाता है, उसे सुलीन कहा जाता है।
(10) ये दोनों मनोभूमिकाएँ परिपक्व अभ्यास वाले योगी के होती हैं।
(11) इसमें बाह्य वस्तुओं का ग्रहण नहीं होता, इसलिए इन भूमिकाओं में स्थिरता दृढ़ एवं चिरकालीन होती है तथा सहज आनंद का अनुभव भी विपुल होता है।
(12) इस युगल (श्लिष्ट और सुलीन) का विषय मनोगत ध्येय ही होता है। यहाँ ध्येय सूक्ष्म और आत्मगत हो जाता है।
(13) जब मन बाह्य आलंबन से शून्य होकर केवल आत्मपरिणत हो जाता है, तब उसे निरुद्ध कहा जाता है।
(14) यह भूमिका वीतराग को प्राप्त होती है।
(15) इसमें सहज आनंद प्रकट हो जाता है। (क्रमशः)