साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

(126)

छोड़ धरती को गया है जो फरिश्ता
क्या उसी से आसमां का शून्य भरता
जरूरी समझा अगर जाना वहाँ पर
क्यों नहीं सुरलोक से ही पीर हरता।।

मध्य दिन में जो हुआ ओझल अचानक
भानु वह आलोकधर्मी अब कहाँ है?
पता उसका पूछकर कोई बताए
देखने आतुर उसे सारा जहाँ है
सुधावर्षी जलद का सान्निध्य पाने
भावना का ज्वार मानस में उमड़ता।।

दीप जो जलता रहा नित आंधियों में
प्राप्त कर आलोक उससे मन भरा था
चीर लहरों को चला तूफान में था
आफतों का सिंधु उसने ही तरा था
युगों तक जिसको निहारा निकटता से
बिम्ब उसका पुतलियों में अब उभरता।।

लेप विस्मृति का लगाना चाहती थी
किंतु यादें हो रहीं हावी हृदय पर
एक दिन झुकते हुए नभ ने कहा था
आ रहा था साथ कोई नखत भास्वर
रोक उस पर लग रही चारों तरफ से
तब भला कैसे धरा पर वह उतरता।।

(127)

बिछ रहीं पलकें प्रतीक्षा में तुम्हारी
पर नहीं तुमको कभी हम याद आए
जागते-सोते तुम्हें मन से पुकारा
पर नहीं साक्षात तुमको देख पाए।।

क्यों नहीं सुनते हमारी प्रार्थना तुम
कौन-सा तुम पर लगा प्रतिबंध बोलो
जै0वि0भा0 में भी नहीं तुमको निहारा
जुड़ा है अनुबंध किससे राज खोलो
फलसफा क्या है तुम्हारी जिंदगी का
कौन आकर अब यहाँ हमको बताए।।

प्रगति की धारा नई तुमने बहाई
स्वप्न देखे रात-दिन कितने सलोने
था गजब का हौसला जज्बा तुम्हारा
लग रहे योद्धा प्रखर सब आज बौने
राख बन जीना न तुमको रास आया
ज्योति की आराधना कर दिपदिपाए।।

बालकों के मृदुल दिल में बस रहे तुम
तरुण पलभर भी न तुमको भूल पाते
वृद्ध भक्तों के हृदय का हाल देखो
क्यों नहीं तुम ये सभी नाते निभाते
विशद स्मृतियों का खजाना पास मेरे
कौन उसको खोलकर तुमको दिखाए।।

(क्रमशः)