उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

(5) द्वैक्रियवाद

गंग मुनि आचार्य धनगुप्त के शिष्य थे। वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने जा रहे थे। मार्ग में उल्लुका नदी थी। उसे पार करते समय सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। मुनि ने सोचा, आगम ने कहा हैµएक समय में दो क्रियाओं की अनुभूति नहीं होती। किंतु मुझे एक साथ दो क्रियाओं की अनुभूति हो रही है। वे गुरु के पास पहुँचे और अपना अनुभव सुनाया। गुरु ने कहाµ‘वास्तव में एक समय में एक ही क्रिया की अनुभूति होती है। मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, इसलिए हमें उसकी पृथक्ता का पता नहीं चलता।’ गुरु की बात उन्हें नहीं जंची। वे संघ से अलग होकर ‘द्वैक्रियवाद’ का प्रचार करने लगे। ये पाँचवें निÐव हुए।

(6) त्रैराशिकवाद

छठे निÐव रोहगुप्त (षडुलूक) हुए। वे अंतरंजिका के भूतगृह चैत्य में ठहरे हुए अपने आचार्य श्रीगुप्त को वंदन करने जा रहे थे। वहाँ पोट्टशाल परिव्राजक अपनी विद्याओं के प्रदर्शन से लोगों को अचम्भे में डाल रहा था और दूसरे सभी धार्मिकों को वाद के लिए चुनौती दे रहा था। आचार्य ने रोहगुप्त को उसकी चुनौती स्वीकार करने का आदेश दिया और मयूरी, नकुली, विडाली, व्याघ्री, सिंही आदि अनेक विद्याएँ भी सिखाई।
रोहगुप्त ने उसकी चुनौती को स्वीकार किया। राजसभा में चर्चा का प्रारंभ हुआ।
पोट्टशाल ने जीव और अजीवµइन दो राशियों की स्थापना की। रोहगुप्त ने जीव, अजीव और नो जीव नो अजीवµइन तीन राशियों की स्थापना कर उसे पराजित कर दिया।
रोहगुप्त ने वृश्चिकी, सर्पी, मूषिकी आदि विद्याएँ भी विफल कर दीं। उसे पराजित कर रोहगुप्त अपने गुरु के पास आए, सारा घटना-चक्र निवेदित किया। गुरु ने कहाµ‘राशि दो है। तूने तीन राशि की स्थापना की, यह अच्छा नहीं किया। वापस सभा में जा, इसका प्रतिवाद कर।’ वे आग्रहवश गुरु की बात स्वीकार नहीं कर सके। गुरु उन्हें ‘कुत्रिकापण’ में ले गए। वहाँ जीव माँगा वह मिल गया, अजीव माँगा वह भी मिल गया, तीसरी राशि नहीं मिली। गुरु राजसभा में गए और रोहगुप्त की पराजय की घोषणा की। इस पर भी उनका आग्रह कम नहीं हुआ। इसलिए उन्हें संघ से अलग कर दिया गया।

(7) अबद्धिकवाद

सातवें निÐव गोष्ठामाहिल थे। आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी दुर्बलिका पुष्यमित्र हुए। एक दिन वे विन्ध्य नामक मुनि को कर्म-प्रवाद का बंधाधिकार पढ़ा रहे थे। उसमें कर्म के दो रूपों का वर्णन आया। कोई कर्म गीली दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा के साथ चिपक जाता हैµएकरूप हो जाता है और कोई कर्म सूखी दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा का स्पर्श कर नीचे गिर जाता हैµअलग हो जाता है।
गोष्ठामाहिल ने यह सुना। वे आचार्य से कहने लगेµ‘आत्मा और कर्म यदि एकरूप हो जाएँ तो फिर वे कभी भी अलग-अलग नहीं हो सकते। इसलिए यह मानना ही संगत है कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उससे एकीभूत नहीं होते। वास्तव में बंध होता ही नहीं। आचार्य ने दोनों दशाओं का मर्म बताया, पर उन्होंने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। आखिर उन्हें संघ से पृथक् कर दिया गया।
इन सात निÐवों में जमाली, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिलµ‘ये तीन अंत तक अलग रहे, भगवान् के शासन में पुनः सम्मिलित नहीं हुए। शेष चार निÐव प्रायश्चित्त लेकर पुनः शासन में आ गए।’

(क्रमशः)