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स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(27) नरको नाम नास्तीति, नैवं संज्ञां निवेशयेत्।
स्वर्गोऽपि नाम नास्तीति, नैवं संज्ञां निवेशयेत्।।

‘नरक नहीं है’-इस प्रकार की अवधारणा न करे। ‘स्वर्ग नहीं है’-इस प्रकार की भी अवधारणा न करे।

मनुष्य प्रत्यक्ष में संदिग्ध नहीं होता। वह संदिग्ध होता है परोक्ष में। दृश्य में जितना विश्वास है उतना अदृश्य में नहीं; जबकि सत्य दोनों हैं। प्रत्यक्ष में सत्य का आग्रह करने वाला परोक्ष की सच्चाई को झुठला देता है।
मनुष्य और तिर्यंच-ये दोनों योनियाँ प्रत्यक्ष हैं, वैसे स्वर्ग और नरक नहीं। लेकिन उनके प्रत्यक्ष न होने से वे नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है। वह इस सीमा से परे का विषय है। जिस व्यक्ति का आवरण हट जाता है, उसके लिए मनुष्य जैसा ही वह प्रत्यक्ष है। इसलिए अपनी क्षमता को बढ़ाएँ न कि सत्य को झुठलाएँ। भगवान् महावीर ने इसलिए अपने शिष्यों से कहा कि-‘नरक और स्वर्ग नहीं है’-ऐसा संज्ञान मत करो।

(28) प×चेन्द्रियवधं कृत्वा, महारम्भपरिग्रहौ।
मांसस्य भोजनश्चापि, नरकं याति मानवः।।

जो पुरुष पंचेन्द्रिय का वध करता है, महा-आरंभ-हिंसा करता है, महापरिग्रही होता है और जो मांस-भोजन करता है, वह नरक में जाता है।

(29) सरागसंयमो नूनं, संयमासंयमस्तथा।
अकामनिर्जरा बाल-तपः स्वर्गस्य हेतवः।।

स्वर्ग में जाने के चार कारण हैं-(1) सराग संयम-अवीतराग का संयम, (2) संयमासंयम-अपूर्ण संयम, (3) अकाम निर्जरा-जिसमें मोक्ष का उद्देश्य न हो वैसे तप से होने वाली आत्मशुद्धि और (4) बाल-तप-अज्ञानी का तप।

(30) विनीतः सरलात्मा च, अल्पारंभपरिग्रहः।
सानुक्रोशोऽमत्सरी स, जनो याति मनुष्यताम्।।

जो विनीत और सरल होता है, अल्प-आरंभ और अल्प-परिग्रह वाला होता है, दयालु और मात्सर्य रहित होता है, वह मृत्यु के बाद मनुष्य-जन्म को प्राप्त होता है।

(क्रमशः)