प्रयोगधर्मा स्थितप्रज्ञा
संस्कार, संन्यास और सहकार का उम्र से नहीं, मानसिक व भावनात्मक स्तर से योग होता है। जैन धर्म, तेरापंथ धर्मसंघ में समण श्रेणी की स्थापना के प्रतीक रूप अभिधान प्राप्त समणी स्थितप्रज्ञा के जीवन में इनका प्रशस्त रूप दृष्टिगोचर होता है। योग बुद्धि का पहला स्वरूप है-कर्तव्य निश्चय। भगवान महावीर का सूक्त है-‘आणाए मामगं धम्मं’। इसका अर्थ है-आज्ञा ही मेरा धर्म है। भगवान की आज्ञा व गुरु की आज्ञा ही समणी स्थितप्रज्ञा के लिए जीवन में धर्म रही। गुरु द्वारा इंगित व्यवस्था एवं व्यवस्थापकों के प्रति भी वे सदा सर्वात्मना समर्पित रहे। उनका संयम सदा वर्धमान रहा।
व्यक्ति का तत्त्वज्ञान उसकी बुद्धि में गुप्त रहेगा, प्रकट होगा उसका आचरण। संयम के संस्कार उनकी जीवनशैली के साथ जुड़े हुए थे, इच्छाओं का संयम, उपकरणों का संयम, अपरिग्रह की चेतना को दर्शाने वाला था। पदार्थों के उपयोग का संयम भी अनूठा था। पानी को घी की तरह उपयोग में लाना उनका स्वभाव था। फलतः वस्त्र-पात्र आदि की अच्छी से अच्छी सफाई वे अल्प पानी में कर लेते। पानी भी जीव है, अनावश्यक अपव्यय न हो-इसके लिए प्रेरणा भी वे निरंतर देते रहते। मन व इंद्रिय संयम के साथ उनकी जीवनशैली जुड़ी हुई थी।
ध्यान व स्वाध्याय चेतना से प्रयोगधर्मी बनकर संन्यास को निखारना समणी स्थितप्रज्ञा का लक्ष्य रहा। आसन- प्राणायाम-जप आदि के प्रयोगों से उन्होंने स्वयं भी लाभ उठाया व दूसरों को भी पर्याप्त सहयोग दिया। पहले वे पढ़ने-लिखने हेतु नंबर का चश्मा पहनते थे पर रंग चिकित्सा का उपयोग करते हुए उन्होंने अपने विजन को सही कर लिया और बिना चश्मे के ही पढ़ने-लिखने लगे। जैन आगम, अहिंसा, प्रेक्षाध्यान व जीवन विज्ञान के शिक्षण-प्रशिक्षण से उन्होंने जैन संन्यास की आत्मा का स्पर्श करने का प्रयास किया।
अपने स्वार्थ को गौण कर दूसरों को सहयोग देने में आनंद का अनुभव करना उनकी वृत्ति रही। कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता, सामने जो करणीय कार्य है, जहाँ अपेक्षा है, वे यदि सामने हैं तो वे उसके लिए तत्पर हो जाते। कभी किसी दवा आदि की अपेक्षा के लिए उनके पास जाते, वे तत्काल निकाल कर देते। विशेष पथ्य आदि की अपेक्षा के लिए कहीं जाना होता, वे सहयोग देने के लिए तैयार होते, व्यक्तिगत या शारीरिक सेवा की अपेक्षा होती, वे चलाकर आत्मीय भाव से संलग्न हो जाते। कैसे भूल सकती हूँ वो समय, जब मेरे बाद हाथ का फ्रेक्चर हुआ। दायां हाथ कुछ कार्य तो स्वयं कर सकता था, लेकिन स्वयं की सफाई तो नहीं कर सकता था। मैं अभिभूत हो गई, जब उन्होंने मेरे दाएं हाथ की सफाई की। सामान्यतः वस्त्र प्रक्षालन आदि में सहयोग बड़ों से क्या लिया जाए! लेकिन उनकी आत्मीयता ने उसमें भी समय पर हाथ बंटाया।
स्थितप्रज्ञ में कंपन और वक्रता नहीं होती। बाहरी दिखावे की अपेक्षा भीतरी दृश्य से ही वे तृप्त होते हैं, आत्म संतुष्ट होते हैं। समणी स्थितप्रज्ञा का सहकार भाव प्रदर्शन से प्रायः परे रहा। विश्वविद्यालय के प्रारंभिक काल में जो साध्वियाँ पीएच0डी0 कर रहे थे, प्रश्न हुआ उनकी थीसिस का प्रस्तुतीकरण कैसे हो? समणी स्थितप्रज्ञा जी आगे आए। कई साध्वियों की थिसिस का कम्प्यूटर से कम्पोजिंग कार्य उन्होंने रात-दिन लग कर किया। प्रूफिंग आदि में तो कितनों को सहयोग दिया। किसी भी जीवन को समय पर कुछ पहलुओं से ही प्रस्तुत किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान और प्रयोगधर्मा जीवन की यह प्रस्तुति उनकी सुसंस्कृति को अपने भीतर समेटने के प्रयास स्वरूप ही हो-ऐसी भावना है।