संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(31) माया×च निकृतिं कृत्वा, कृत्वा चासत्यभाषणम्।
कूटं तोलं न मान×च, जीवस्तिर्यगगतिं व्रजेत्।।

तिर्यंचµपशु-पक्षी आदि की गति में उत्पन्न होने के चार कारण हैंµ(1) कपट, (2) प्रवंचना, (3) असत्य-भाषण और (4) कूट तौल-माप।

इन चार श्लोकों में नरक, स्वर्ग, मनुष्य और तिर्यंचµइन चार गतियों की प्राप्ति के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं। इनके अध्ययन से यह सहज पता लग सकता है कि किस अध्यवसाय वाले प्राणी किस योनी में जाते हैं। कर्म का फल अवश्य होता हैµयह जैन दर्शन का ध्रुव तथ्य है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार व्यक्ति जन्म-मरण करता है। उपर्युक्त निर्दिष्ट कारण एक संकेत मात्र हैं। वे तथा उन जैसे अनेक कारणों के संयोग से व्यक्ति को वे-वे योनियाँ प्राप्त होती हैं। केवल ये ही कारण नियामक नहीं हैं। नरक जाने का एक हेतु मांसाहार है किंतु मांस खाने वाले सभी व्यक्ति नरक में ही जाते हों, ऐसी नियामकता नहीं है। यह तथ्य अवश्य है कि मांसाहार व्यक्ति में क्रूरता पैदा करता है और उससे कर्म-परंपरा तीव्र होती चली जाती है।
अतः इन कारणों के आलोक में हमें स्पष्ट जान लेना चाहिए कि गति की प्राप्ति में किन-किन अध्यवसायों या प्रवृत्तियों का क्या-क्या परिणाम होता है।

(32) शुभाशुभाभ्यां कर्माभ्यां, संसारमनुवर्तते।
प्रमादबहुलो जीवोऽप्रमादेनान्तमृच्छति।।

प्रमादी जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में अनुवर्तन करता है और अप्रमादी जीव संसार का अंत कर देता है।

(क्रमशः)