आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

अस्तित्व की जिज्ञासा

लक्ष्मण श्रीराम की बात सुनकर मौन रहे, पर उसी पम्पा सरोवर में रहने वाली मछली तड़प उठी। वह साहस जुटाकर बोली

बक: किं वर्ण्यते राम! येनाहं निष्कुली कृता।
सहचारी विजानीयात् चरित्रं सहचारिणाम्॥

राम! आप बगुले की धार्मिकता का वर्णन करते हैं! जिस बगुले ने मेरे समूचे कुल को समाप्त कर दिया, वह धार्मिक हो सकता है? राम! आप नहीं जानते इसकी कुटिलता को, क्योंकि हरदम साथ में रहने वाला व्यक्‍ति ही अपने साथी के चरित्र को यथार्थ रूप में जान सकता है।
इस प्रसंग के आधार पर यह जाना जा सकता है कि मूल्य केवल एकाग्रता का नहीं किंतु उस एकाग्रता की विषय-वस्तु का है। जो एकाग्रता चैतन्य या अपने अस्तित्व के प्रति जिज्ञासा उत्पन्‍न करती है, वही एकाग्रता साधना की द‍ृष्टि से बहुमूल्य है और वही साधना का आदि बिंदु है। जब तक अपने अस्तित्व के बारे में जिज्ञासा नहीं जागती, व्यक्‍ति अपने आपको पहचानने के लिए उत्सुक नहीं होता। ‘मैं कौन हूँ?’ इस प्रश्‍न का उत्तर पाने के लिए अकुलाहट नहीं होती, तब तक ध्यान की वास्तविक भूमिका उपलब्ध नहीं हो सकती। अपने अस्तित्व के प्रति गहरी उत्सुकता जगाने के बाद साधना-पथ स्वयं मिल जाता है। क्योंकि गहरी उत्सुकता और पथ में बहुत दूरी नहीं होती। उत्सुकता मन में बेचैनी पैदा करती है। बेचैनी के चरम शिखर पर पहुँचने पर पथ स्वयं मिल जाता है।
एक संन्यासी के पास एक जिज्ञासु युवक आया और बोला‘गुरुदेव! मैं अध्यात्म का जिज्ञासु हूँ। आप मुझे साधना का पथ दिखाएँ।’ संन्यासी ने कहा‘शिष्य! यह बहुत अच्छी बात है। तुम्हारा अध्ययन पूरा हो गया है, अब तुम साधना के क्षेत्र में गति करना चाहते हो, यह तुम्हारे शुभ भविष्य का प्रतीक है। मैं तुम्हें साधना का गुर बताऊँगा पर अभी नहीं। आज वापस जाओ, एक सप्ताह बाद आना।’ युवक लौट गया और ठीक एक सप्ताह बाद पुन: आश्रम में पहुँचकर बोला‘बाबा! सप्ताह पूरा हो गया है, अब तो पथ दिखाओ।’ संन्यासी ने उसको दो सप्ताह की प्रतीक्षा करने का निर्देश देकर लौटा दिया। शिष्य विनीत था। गुरु की बात मानकर उसने दो सप्ताह की प्रतीक्षा की। समय पूरा होते ही वह संन्यासी के पास पहुँचा। संन्यासी ने फिर तीन सप्ताह के लिए लौटा दिया। इस प्रकार कई महीने निकल गए। एक दिन वह अधीर होकर बोला‘गुरुदेव! क्या बात है? आप मुझे टाल क्यों रहे हैं? आप मुझे साधना के योग्य नहीं समझते हैं?’ संन्यासी उसकी अधीरता देखकर बोला‘अच्छा चलो, आज मैं तुम्हें साधना का पथ दिखलाता हूँ।’
संन्यासी उस युवक को साथ लेकर चला और शहर पार कर एक नदी के तट पर पहुँच गया। वहाँ कुछ क्षण विश्राम कर वह बोला‘वत्स! शीतल और स्वच्छ जल बह रहा है, हाथ-मुँह धो लो।’ शिष्य ज्यों ही नीचे उतरा, संन्यासी ने उसका सिर पकड़कर उसे नीचे बिठा दिया। वह तत्काल ऊपर उठने लगा, पर संन्यासी की पकड़ मजबूत थी। उसने उसको उठने ही नहीं दिया। वह भीतर-ही-भीतर छटपटाने लगा। अब वह श्‍वास ले तो नाक और मुँह में पानी भर जाता है और श्‍वास रोक ले तो दम घुटने लगता है। एक क्षण भी पानी में रहना उसके वश की बात नहीं थी। उसकी अकुलाहट और छटपटाहट देख संन्यासी ने उसको बाहर निकालकर कहा‘शिष्य! ऐसी क्या जल्दी थी तुम्हें? थोड़ी देर और पानी में रह जाते तो क्या होता?’ युवक अपने भीतर की बेचैनी प्रकट करते हुए बोला‘गुरुदेव! होना क्या था? प्राण निकल जाते। एक क्षण का विलंब भी मेरे लिए सह्य नहीं था। क्या आप मेरे प्राण लेने की सोच रहे थे?’
संन्यासी मुस्कराता हुआ बोला‘वत्स! मैं तुम्हारे प्राण लेना नहीं चाहता था, तुम्हें साधना का पथ दिखलाना चाहता था।’‘कैसे?’ शिष्य ने पूछा। उसकी जिज्ञासा को समाहित करते हुए संन्यासी बोला‘जब तुम पानी में डूबने लगे तो एक पल भी चैन से नहीं रह सके और साधना के लिए तुमको कोई बेचैनी नहीं हुई। साधना के प्रति भी आज जैसी बेचैनी जागेगी, तब साधना-पथ उपलब्ध होगा।’
साधना के लिए गहरी तड़प की अपेक्षा है। गहरी तड़प पथ की उपलब्धि सहजता से करा देती है। पथ उपलब्ध होने के बाद यम, नियम आदि के अनुसार जीवन को ढालना जरूरी है। इस बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि साधना का प्रथम बिंदु प्राप्त होने के बाद यम, नियम आदि सहज ही जीवन में उतरने लगते हैं। साधना की द‍ृष्टि से जीवन में व्रतों का विशेष मूल्य है। व्रतों के अभाव में अग्रिम विकास की बाधाएँ निरस्त नहीं होतीं। जिस प्रकार बीज बोने से पहले ऊबड़-खाबड़ भूमि को सम बनाया जाता है, उसी प्रकार ध्यान का बीज वपन करने के लिए व्यवहार की विषम भूमि को महाव्रत और अणुव्रत की आराधना के द्वारा सम किया जाता है। भूमि का समतलीकरण होने के बाद ध्यान के बीजों की बुआई बहुत सरल हो जाती है। उक्‍त तथ्यों के आधार पर तीन बातें पूर्णत: स्पष्ट हो जाती हैंपहली, अस्तित्व की जिज्ञासा होनी चाहिए। दूसरी, साधना के लिए गहरी तड़प और उनके साथ होनी चाहिए व्रतों की आराधना। साधना का विकास करने के लिए इस त्रिपुटी का योग बहुत आवश्यक है।