मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
चैतन्य और आनंद का स्वाभाविक संबंध है। जहाँ चैतन्य है, वहाँ आनंद है और जहाँ आनंद है, वहाँ चैतन्य है। इन दोनों में से एक को पृथक् नहीं किया जा सकता। हर मनुष्य के भीतर जैसे चैतन्य का अजò प्रवाह है वैसे ही आनंद का भी अजò प्रवाह है किंतु मन की चंचलता के कारण उसकी अनुभूति निरंतर नहीं होती।
कोई आदमी कुछ कहता है, उस समय यदि हमारा मन चंचल होता है तो हम उसकी बात को सुन ही नहीं पाते और यदि सुन पाते हैं तो उसे पूरी तरह पकड़ नहीं पाते। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता के कारण अपने भीतर बहने वाले आनंद के प्रवाह का हम स्पर्श नहीं कर पाते। जिस भूमिका में मन थोड़ा स्थिर होता है, उस समय आनंद की हल्की-सी अनुभूति हो जाती है। जैसे-जैसे मन की स्थिरता की मात्रा बढ़ती है, वैसे-वैसे आनंदानुभूति की मात्रा बढ़ती जाती है। मन का निरोध होने पर सहज आनंद का साक्षात्कार हो जाता है।
मन की दूरी और तीसरी कक्षा में विकल्पों (कल्पनाओं) का सिलसिला चालू रहता है। अतः मन दूसरी-दूसरी चीजों में अटका रहता है। फलस्वरूप उस समय हम सहज चेतना के स्तर पर नहीं होते। उस समय जो आनंद का अनुभव होता है, वह मन की स्थिरता के कारण अंतःस्रावी नलिकाओं में होने वाले अंतःस्राव से होता है।
चैथी और पाँचवीं कक्षा में विकल्पों का सिलसिला नहीं रहता। हमारा मन एक ही विकल्प पर स्थिर हो जाता है। हमारे मस्तिष्क की सुखानुभूति की गं्रथि तथा अंतःस्रावी नलिकाओं पर उसका अधिक प्रभाव होता है। फलस्वरूप आनंद की अनुभूति अधिक होती है।
निरोध की कक्षा में सहज आनंद के साथ साक्षात् संपर्क हो जाता है। उस पर शारीरिक परिवर्तन का प्रभाव नहीं होता, इसलिए वह चिरस्थायी होता है।
पहली कक्षाओं में सहज आनंद की अनुभूति नहीं होती है, ऐसी बात नहीं है किंतु उसकी पूर्ण अनुभूति निरोध की कक्षा में होती है। इसीलिए पहली कक्षाओं में शारीरिक परिवर्तन से होने वाली आनंदानुभूति की मुख्य रूप से चर्चा की गई है। वैसे तो किसी पौद्गलिक संपर्क के बिना आनंद की अनुभूति होती है, उसमें सहज आनंद का प्रतिबिंब या प्रभाव रहता ही है।
(16) ज्ञान-वैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।
(17) श्रद्धाप्रकर्षेण।।
(18) शिथिलीकरणेन।।
(19) संकल्पनिरोधेन।।
(20) ध्यानेन च।।
(21) गुरुपदेश-प्रयत्नबाहुल्याभ्यां तदुपलब्धिः।।
(16) आत्मज्ञान और वैराग्य से मन का निरोध होता है। आत्मज्ञान चैतन्य की अंतर्मुखी प्रवृत्ति है। जब हमारे चैतन्य का प्रवाह अंतर्मुख होता है तब मन की कल्पनाएँ और स्मृतियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। इसी प्रकार वह पदार्थों व वृत्तों के प्रति अनासक्त होता है, तब उसकी चंचलता छूट होती है।
(17) मन के निरोध का एक हेतु श्रद्धा का प्रकर्ष है। वह ध्येय के प्रति अत्यंत निष्ठाशील व समर्पित होकर निरुद्ध हो जाता है। आत्मज्ञान, वैराग्य और श्रद्धा-प्रकर्षµमन की स्थिरता के ये तीनों हेतु आंतरिक हैं।
(18) काय का शिथिलीकरण भी मन के निरोध का साधन है। काय की चंचलता मन की चंचलता को बढ़ाती है। मन की स्थिरता के लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।
(19) संकल्पों का निरोध करने से भी मन निरुद्ध होता है। मन कल्पनाओं से भरा रहता है तब क्रियात्मक शक्ति का विकास नहीं होता। करणीय कल्पना का मन पर भार न हो, वह खाली रहे तभी उसकी शक्ति केंद्रित होती है।
(20) मनोनिरोध का सबसे बड़ा साधन हैµध्यान।
शिथिलीकरण, संकल्प-निरोध और ध्यानµमन की स्थिरता के ये तीनों हेतु अभ्यासात्मक हैं।
(21) गुरु के उपदेशµसाधना के रहस्यों का प्रशिक्षण और प्रयत्न की बहुलताµबार-बार अभ्यास करने से उक्त साधनों की उपलब्धि हो जाती है।
मनोनिरोध के साधन
केशी स्वामी ने गौतम स्वामी से पूछाµयह मन एक चपल घोड़ा है। वह चलते-चलते उन्मार्ग की ओर भी चला जाता है। आप उसका निग्रह कैसे करते हैं?
गौतम ने कहाµमैंने उस घोड़े को खुला नहीं छोड़ रखा है। उसकी लगाम मेरे हाथ में है।
वह लगाम क्या है? ज्ञान, बुद्धि या विवेक लगाम है। वह जिसके हाथ में होती है, वह उस घोड़े पर नियंत्रण पा लेता है।
इस संवाद में मन को स्थिर करने का जो उपाय बताया गया है, वह ज्ञानयोग है। यह मन के अनुशासन का प्रथम हेतु है। यह हर मनुष्य के लिए कठिन है। दूसरी बात यह है कि सबकी रुचि भी समान नहीं है। कोई आदमी ज्ञान-प्रधान होता है तो कोई श्रद्धा-प्रधान होता है और कोई क्रिया-प्रधान होता है।
यहाँ ज्ञान का अर्थ सब कुछ जानना नहीं है। किंतु अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति है। वैराग्य उसका परिणाम है। अपने अस्तित्व के प्रति अनुराग होने का नाम ही विराग है। जब तक अपने अस्तित्व का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता, तब तक बाह्य वस्तुओं के प्रति मन में तृष्णा रहती है। उसके द्वारा उनके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। आत्मानुभूति होने पर यह स्थिति उलट जाती है। अनुराग वस्तुओं से हटकर अपने प्रति हो जाता है। इसका अर्थ है कि उनके प्रति विराग हो जाता है।
संकल्प, विकल्प और इच्छाµये सब मन के कार्य हैं। बाह्य वस्तुओं के प्रति जितनी कल्पना और इच्छा होती है, मन उतना ही चंचल रहता है। मन की गति को आत्मा की ओर मोड़ देने पर उसकी कल्पना और इच्छा-शक्ति क्षीण हो जाती है। इसी को हम कहते हैं वैराग्य के द्वारा मन का विरोध।
(क्रमशः)