संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(33) बोधिमासाद्य जायन्ते, भवभ्रमणपराङ्मुखाः।
अबोधिः परमं कष्टं, बोधिः सुखमनुत्तरम्।।

मनुष्य बोधि को प्राप्त कर संसार-भ्रमण से पराङ्मुख हो जाते हैं। अबोधि परम कष्ट है और बोधि अनुत्तर सुख।

अबोधि दुःख है और बोधि सुख है। अबोधि का अर्थµअज्ञान है और मिथ्याज्ञान भी है। अज्ञान से भी अधिक खतरनाक है मिथ्याज्ञान। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु अल्प ज्ञान है। मिथ्याज्ञान विपरीत ज्ञान है। संसार भ्रमण का मूल हेतु यही है। अबोधि संसार से विमुख नहीं करती। वह मानव को संसार की दिशा में ही लिए चलती है।
संसार की विमुखता के लिए बोधि अपेक्षित है। उसकी प्राप्ति उन्हीं से हो सकती है जो स्वयं बोधि को प्राप्त है, जिन्हें बोधि का स्पर्श हुआ है। सद्गुरु की उपासना, सत्संग का प्रयोजन का हेतु इसीलिए है। सद्गुरु की सन्निधि से अनेक लोगों ने जीवन-नैय्या पार की है। सत्संग को भव-सागर से पार करने के लिए नौका की उपमा ही है। ‘सत्संङ्गत् संजायते ज्ञानं’ सत्संग से वह ज्ञान प्राप्त होता है जिसे पाकर व्यक्ति संसार से उदासीन बन जाता है, संसार के स्वरूप का उसे दिग्दर्शन हो जाता है। अबोधि ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए अबोधि को दुःख कहा है। बोधि सहज ही व्यक्ति को शनैः-शनैः आत्मस्थ बना देती है, उसके अज्ञानतम का उच्छेद कर देती है और उसे पूर्ण सुखी-आनंदित बना देती है। बोधि प्राप्ति का एक उपाय है सत्संग, उसके अन्य नियम भी हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सबको सत्संग का योग मिले ही। कुछ-कुछ व्यक्ति स्वतः ही अपनी साधना के द्वारा सहज ही उसे प्राप्त कर लेते हैं, कुछ अन्य निमित्तों को पाकर बुद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं।

(क्रमशः)