
आनंदमय जीवन पाने के लिए रहें अनासक्त: आचार्यश्री महाश्रमण
दंताणी, 15 फरवरी, 2023
मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमण जी प्रातः विहार कर दंताणी के अचलगच्छीय मंदिर परिसर में पधारे। शांतिदूत ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी जीवन जीता है। जीवन जीने के लिए प्रवृत्ति करनी होती है। इन सारे व्यवहारों के लिए सक्रिय होना पड़ता है। कर्म करना होता है। प्रवृत्ति-कर्म है, उसके साथ आसक्ति जुड़ जाती है, तो वह आसक्ति विशेष बंधन कराने वाली बन सकती है। प्रवृत्ति में आसक्ति या बंधन न हो या हो तो हल्का हो सकती है। बंधन पाप-कर्म का नहीं होना चाहिए।
पाप कर्म का मूल मोहनीय कर्म होता है। राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। साधु भी प्रवृत्ति करता है, तो सामान्य गृहस्थ भी प्रवृत्ति करता है। साधु का खाना निर्जरा का कारण बन सकता है। गृहस्थ का परिभोग बंधन का कारक हो सकता है। महत्त्वपूर्ण बात है, जीवन में अनासक्ति रहे। जैसे कमल पत्र जल में रहकर भी जल से अलिप्त रहता है। इसी प्रकार संसाररूपी जल में रहते हुए, प्रवृत्ति करते हुए भी गृहस्थ अलिप्त रहने का प्रयास करे। एक गृहस्थ सम्यक्-दृष्टि श्रावक है, अनासक्ति का साधक है, कुटुम्ब-परिवार में रहते हुए भी वह अलिप्त रहने का प्रयास करे। अलिप्त धाय-माता की तरह। अमृत्व भाव रहे, भीतर में मोह-मूढ़ता न हो। अनासक्ति की चेतना से सघन बंधन से बचा जा सकता है। न निंदा, न प्रशंसा, शांति में रहो।
एक प्रसंग से समझाया कि गृहस्थ के मेरा-मेरा होता है, पर साधु के न मेरा न तेरा। यह आसक्ति-अनासक्ति का अंतर है। जहाँ त्याग-संयम और अनासक्ति है, उससे जो आनंद-शांति रह सकती है, वह कामना-आसक्ति में कहाँ मिल सकती है। आसक्ति राक्षसी है, जो आनंद को खा जाने वाली है। त्याग-योग धर्म, भोग अधर्म, व्रत धर्म, अव्रत अधर्म है। असंयम अधर्म है, संयम धर्म है। तपस्या-अहिंसा धर्म है। धर्म को अपनाने का, साधना आराधना करने का प्रयास करें। पद से भी बड़ा हो सकता है, पर साधु का पद तो चक्रवर्ती से भी बड़ा है। साधु का पद त्याग-संयम से मिलने वाला है। श्रावक होना भी एक पदवी है, श्रावक में भी संयम होता है। जीवन में सद्भावना, नैतिकता, नशामुक्ति रहे, वह भी अच्छी बात है।
हम भगवान महावीर के जैन शासन में जी रहे हैं, जहाँ समता-वीतरागता, संयम, तप और अहिंसा की बात है। ऐसा साया हमें मिलता रहे। जीवनशैली अच्छी हो। गार्हस्थ्य में भी साधुता-धर्म रहे।पूज्यप्रवर के स्वागत में अचलगच्छीय साधु मुनि मोक्ष चंद्र सागर जी, वीर शेखर सागर जी पधारे। मुनि वीर शेखर सागर जी ने अपनी भावना भी अभिव्यक्त की। स्थानीय सरपंच नितीश अग्रवाल, मंदिर परिसर से मोहन भाई ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। आबु रोड जैन संघ के सदस्यों ने पूज्यप्रवर से आबु रोड पधारने की विनती की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।