उपासना
(भाग - एक)
आचार्य तुलसी
तेरापंथ
स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य रुघनाथजी के शिष्य ‘संत भीखणजी’ (आचार्य भिक्षु) ने विक्रम संवत् 1817 में तेरापंथ का प्रवर्तन किया। आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और संगठन पर बल दिया। एकसूत्रता के लिए उन्होंने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया। शिष्य-प्रथा को समाप्त कर दिया। थोड़े ही समय में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापंथ प्रसिद्ध हो गया। आचार्य भिक्षु आगम के अनुशीलन द्वारा कुछ नए तत्त्वों को प्रकाश में लाए। सामाजिक भूमिका में उस समय वे कुछ अपूर्व-से लगे। आध्यात्मिक दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान् हैं। कुछ तथ्य वर्तमान समाज के पथ-दर्शक बन गए हैं।
राजर्षि प्रसन्नचंद्र
प्रसन्नचंद्र पोतनपुर नगर के अधिशास्ता थे। भगवान् महावीर का उपदेश सनकर वैराग्य जगा। अपने लघु पुत्र को राज्य का भार सौंपकर संयमी बन गए। तपः साधना में लीन रहने लगे।
एक बार भगवान् महावीर के साथ विहार करते हुए राजगृह में पधारे। वे समवसरण के बाहर सूर्य के सामने ऊध्र्वबाहु ध्यानस्थ खड़े आतापना ले रहे थे। महाराजा श्रेणिक अपने दल-बल सहित प्रभु के दर्शनार्थ आया। सुमुख, दुर्मुख दोनों दूत भी साथ थे। जब दुर्मुख ने ध्यानस्थ मुनि को देखा तब सुमुख से कहाµ‘अरे सुमुख! देखो तो सही। यह ढोंगी मुनि यहाँ ध्यान करके खड़ा है। अपने पुत्र के प्रति इसके दिल में तनिक भी दया नहीं है। उधर नगर पर दुश्मन राजा ने आक्रमण कर दिया है। वहाँ उसका रखवाला कौन है? राज्य छीन लिया जाएगा। इसकी पत्नी का भी बुरा हाल होगा।’
दुर्मुख के ये शब्द कान में पड़ते ही प्रसन्नचंद्र मुनि का ध्यान भंग हो गया। राज्य, पुत्र और पत्नी की चिंता में आर्तध्यान में उलझ गए। मन ही मन शत्रुओं से युद्ध करने लगे।
महाराज श्रेणिक ने उधर प्रभु के पास पहुँचकर उन मुनि की गति के संबंध में पूछा तब प्रभु ने कहाµयदि इन्हीं परिणामों में उनका मरण हो तो वे प्रथम नरक में जाएँगे। श्रेणित आश्चर्य में था। उधर मुनि की भावना क्रूर हो रही थी। इधर श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर में दूसरी, तीसरी बताते-बताते सातवीं नरक प्रभु ने बता दी।
उधर मुनि मन ही मन युद्ध में ऐसे रत हो गए कि शत्रु को मारने हेतु
अपने सिर से उतार कर मुकुट फेंकना चाहा। जब सिर पर हाथ पड़ा तब
भान हुआ कि मैं तो मुनि हूँ। किसका राज्य? किसका पुत्र किसका कौन? सारे संबंध झूठे हैं। यों विचार करते ही मनोभाव बदले। सातवीं नरक से चढ़ते-चढ़ते सर्वार्थसिद्ध तक उनके परिणाम पहुँच गए। मुनि भावों से निरंतर ऊँचे और ऊँचे चढ़ रहे हैं।
इतने में सहसा राजा श्रेणिक को देव दुन्दुभियाँ सुनाई दीं। पूछने पर प्रभु ने कहाµ‘प्रसन्नचंद्र मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।’ श्रेणिक के रोम-रोम यह संवाद सुनकर पुलकित हो उठे। प्रभु को वंदन करके अपने महलों की ओर बढ़े। जाते-जाते मन-ही-मन सोच रहे हैंµप्रसन्नचंद्र मुनि अपने स्थान से हिले-डुले नहीं। प्रारंभ से अंत तक वैसे के वैसे खड़े नजर आ रहे हैं पर भावों से कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए। मेरा वह दुर्मुख दूत भी अपने खराब मुँह से बात कहकर मुनि की भावना को बिगाड़ने में कैसे निमित्त बन गया।
(क्रमशः)