शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए क्षमाशील बनें: आचार्यश्री महाश्रमण
प्रांतीज, साबरकांठा (गुजरात), 2 मार्च, 2023
वर्तमान के वर्धमान आचार्यश्री महाश्रमण जी गुरुवार प्रातः विहार कर प्रांतीज पधारे। पूज्यप्रवर की अमृतवाणी का रसपान करने जैन-जैनेत्तर अनेक समाज के लोग उपस्थित थे। पूरे प्रांतीजवासियों के मन में महायोगी के पदार्पण से उत्साह की लहर दौड़ रही थी। युगदृष्टा आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रवचन की अमृत वर्षा करते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में दुर्वृतियाँ भी होती हैं तो सुवृत्तियाँ-सद्वृत्तियाँ भी होती हैं। आदमी को गुस्सा आ सकता है, तो क्षमा का भी प्रयास कर सकता है। हमारी चेतना के विकास और शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए क्षमा एवं सहिष्णुता का महत्त्व है। क्षमा यानी सहिष्णुता, सहन कर लेना।
जब विपरीत स्थिति सामने आती है, तो आदमी का मन उद्वेलित हो जाता है। यदि ऐसी विपरीत स्थिति में आदमी शांति में रहे तो प्रतिकूल स्थिति भी अनुकूल बन सकती है। क्षमा धारण करना अच्छी विशेषता हो जाती है। जिसके पास क्षमारूपी तलवार है, दुर्जन उसका क्या बिगाड़ सकता है जहाँ सूखी घास है, वहाँ चिंगारी डालेंगे तो आग प्रदीप्त हो सकती है। उन्होंने फरमाया कि मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं-निम्न श्रेणी, मध्यम श्रेणी और उच्च श्रेणी। श्रेय कार्यों में विघ्न आ सकते हैं। पर उत्तम श्रेणी के लोग विघ्न-बाधाओं में भी प्रसन्नता से आगे बढ़कर अपना कार्य पूरा करने का प्रयास करते हैं। शरीर से भी सहन करने का प्रयास हो। जीवन में चलते रहो। साथ मिले तो ठीक अन्यथा अकेले चलते रहना चाहिए। जो अपने आप में रहता है, उसे किसी का डर नहीं रहता। जो बाहर में रहता है, उसे डर लग सकता है। इसे एक प्रसंग से समझाया। हम क्षमा-सहिष्णुता के आश्रय में रहें।
गृहस्थ के जीवन में भी शांति-क्षमा का ज्यादा विकास हो तो अच्छा है। शांति है, तो क्षांति रह सकती है। आवेश में न आएँ। उत्तर गुजरात में हमारी अणुव्रत यात्रा चल रही है। अणुव्रत यानी छोटे-छोटे अच्छे नियम जीवन में आते हैं, तो जीवन संवर सकता है। सहन करो, सफल बनो। साधु हो या गृहस्थ जीवन में सहनशीलता रहे। हम क्षमा जैसे गुणों का विकास कर उन्हें आत्मसात करें। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि शब्दकोश में दो शब्द महत्त्वपूर्ण हैं-गुरु और परमात्मा। हमारा लक्ष्य है, परमात्मा बनना, परमात्मा तक पहुँचना। परमात्मा को पाने के लिए हमारे मार्गदर्शक हमारे गुरु बनते हैं। गुरु भी दो प्रकार के होते हैं-लौकिक गुरु और लोकोत्तर गुरु। लोकोत्तर गुरु निःस्पृहता के साथ अपना जीवन चलाते हैं और दूसरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।