संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(35) योग्यताभेदतः पुंसां, रुचिभेदो हि जायते।
रुचिभेदाद् भवेद् भेदः, साधनाध्वावलम्बने।।
सभी मनुष्यों की योग्यता समान नहीं होती इसलिए उनकी रुचि भी समान नहीं होती। रुचि-भेद के कारण साधना के विभिन्न मार्गों का अवलंबन लिया जाता है।
साधना का मूल òोत एक है। वह प्रत्येक साधक में भिन्नता नहीं देखता। भेद होता है बाहरी विशेषता के आधार पर। किसी साधक में श्रुत की विशेषता होती है, किसी में तप की किसी में ध्यान की, किसी में निर्भयता की, किसी में विनय की, किसी में कष्ट-सहिष्णुता आदि की। कुछ अपनी साधना में व्यस्त रहते हैं और कुछ अपना और पराया दोनों का हित साधते हैं। यह सब रुचि-भेद है। इससे मूल में अंतर नहीं आता। बाहरी विशेषताओं को मूल मानने पर भ्रांति हो जाती है।
(36) बुद्धा केचिद् बोधकाः स्युः, केचिद् बुद्धा न बोधकाः।
आत्मानुकम्पिनः केचित् केचिद् द्वयानुकम्पकाः।।
कुछ स्वयंबुद्ध भी होते हैं और दूसरों को बोध-उपदेश भी देते हैं। कुछ स्वयंबुद्ध होते हैं पर दूसरों को बोध नहीं देते। कुछ केवल आत्मानुकंपी होते हैं और कुछ उभयानुकंपी-अपनी व दूसरों की-दोनों की अनुकंपा करने वाले होते हैं।
(क्रमशः)