उपासना
उपासना
(भाग - एक)
आचार्य तुलसी
स्थानांग में सात निÐवों का ही उल्लेख है। जिनभद्रगणी आठवें निÐव बोटिक का उल्लेख और करते हैं, जो वस्त्र त्यागकर संघ से पृथक् हुए थे।
आचार्य मत-स्थापना उत्पत्ति-स्थान कालमान
(1) जमाली बहुरतवाद श्रावस्ती कैवल्य के 18 वर्ष पश्चात्
(2) तिष्यगुप्त जीवप्रादेशिकवाद ऋषभपुर कैवल्य के 18 वर्ष पश्चात्
(3) आषाढ़-शिष्य अव्यक्तवाद श्वेतविका निर्वाण के 114 वर्ष पश्चात्
(4) अश्वमित्र सामुच्छेदिकवाद मिथिला निर्वाण के 220 वर्ष पश्चात्
(5) गंग द्वैक्रियवाद उल्लुकातीर निर्वाण के 228 वर्ष पश्चात्
(6) रोहगुप्त त्रैराशिकवाद अंतरंजिका निर्वाण के 554 वर्ष पश्चात्
(7) गोष्ठामाहिल अबद्धिकवाद दशपुर निर्वाण के 609 वर्ष पश्चात्
श्वेतांबर-दिगंबर
दिगंबर-संप्रदाय की स्थापना कब हुई, यह अब भी अनुसंधान सापेक्ष है। परंपरा से इसकी स्थापना वीर निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी में मानी जाती है। श्वेतांबर नाम कब पड़ाµयह भी अन्वेषण का विषय है। श्वेतांबर और दिगंबर दोनों सापेक्ष शब्द हैं। इनमें से एक का नामकरण होने के बाद ही दूसरे के नामकरण की आवश्यकता हुई।
भगवान् महावीर के संघ में सचेल और अचेल दोनों प्रकार के श्रमणों का समवाय था। आचारांग में सचेल और अचेल दोनों प्रकार के श्रमणों का वर्णन है।
सचेल मुनि के लिए वस्त्रैषणा का वर्णन आयारचूला में है। उत्तराध्ययन में अचेल और सचेल दोनों अवस्थाओं का उल्लेख है। आगमकाल में अचेल मुनि जिनकल्पिक और सचेल मुनि स्थविरकल्पिक कहलाते थे।
भगवान् महावीर के महान् व्यक्तित्व के कारण आचार की द्विविधता का जो समन्वित रूप हुआ, वह जंबू स्वामी तक उसी रूप में चला। उनके पश्चात् आचार्य-परंपरा का भेद मिलता है। श्वेतांबर-पट्टावलि के अनुसार जंबू के पश्चात् प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूतविजय और भद्रबाहु हुए और दिगंबर मान्यता के अनुसार नंदी, नंदीमित्र अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु हुए।
जंबू के पश्चात् कुछ समय तक दोनों परंपराएँ आचार्यों का भेद स्वीकार करती हैं और भद्रबाहु के समय फिर दोनों एक बन जाती हैं। इस भेद और अभेद से सैद्धांतिक मतभेद का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। उस समय संघ एक था। फिर भी गण और शाखाएँ अनेक थीं। आचार्य और चतुर्दशपूर्वी भी अनेक थे। किंतु प्रभवस्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अंकुर फूटने लगे हों, ऐसा प्रतीत होता है।
शय्यंभव ने दशवैकालिक में ‘वस्त्र रखना परिग्रह नहीं है’µइस पर जो बल दिया है और ज्ञातपुत्र महावीर ने संयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र रखने को परिग्रह नहीं कहा हैµइस वाक्य द्वारा भगवान् के अभिमत को साक्ष्य किया है। उससे आंतरिक मतभेद की सूचना मिलती है। कुछ शताब्दियों के पश्चात् शय्यंभव का ‘मुच्छा परिग्गहो वुत्तो’ वाक्य परिग्रह की परिभाषा बन गया। उमास्वाति का ‘मूर्च्छा परिग्रहः’µयह सूत्र इसी का उपजीवी है।
जंबू स्वामी के पश्चात् ‘दस वस्तुओं’ का लोप माना गया है। उनमें एक जिनकल्पिक अवस्था भी है। यह भी परंपरा-भेद की पुष्टि करता है। भद्रबाहु के समय (वी0नि0 160 के लगभग) पाटलिपुत्र में जो वाचना हुई, उन दोनों परंपराओं का मतभेद तीव्र हो गया। इससे पूर्व श्रुतविषयक एकता थी। किंतु लंबे दुष्काल में अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत हो गए। भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अंगों का संकल्प किया गया। वह सबको पूर्ण मान्य नहीं हुआ। दोनों का मतभेद स्पष्ट हो गया। माथुरी वाचना में श्रुत का जो रूप स्थिर हुआ, उसका अचेलत्व-समर्थकों ने पूर्ण बहिष्कार कर दिया। इस प्रकार आचार और श्रुत विषयक मतभेद तीव्र होते-होते वीर-निर्वाण की छठी-सातवीं शताब्दी में एक मूल दो भागों में विभक्त हो गया।
(क्रमशः)