संयम व चारित्र से आत्मकल्याण संभव: आचार्यश्री महाश्रमण
शाहीबाग-अहमदाबाद, 19 मार्च, 2023
तेरापंथ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी का शाहीबाग प्रवास का प्रथम रविवार। खचाखच भरा हुआ जैनम् जयतु शासनम् समवसरण। ऐसा लग रहा था मानो पूज्यप्रवर का चातुर्मासिक प्रवास हो रहा हो। महामनीषी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी आत्मा अनंत-अनंत काल से संसार में भ्रमण कर रही है। इसका कोई आदि बिंदु नहीं है। अनादि काल से आत्मा जन्म-मरण कर रही है। जैसे आकाश का कोई ओर-छोर नहीं है, वैसे ही आत्मा का कोई प्रारंभ बिंदु नहीं होता है। पर आगे हमेशा ही भ्रमण करती रहेगी, यह बात सर्वत्र लागू नहीं होती।
अभव्य जीवों के तो जन्म-मरण का न कोई आदि बिंदु है, न कोई अंत बिंदु है। हमेशा ही उनकी आत्मा भ्रमण करेगी। किंतु जो मोक्षगामी भव्य जीव हैं, उनके जन्म-मरण की परंपरा का समापन बिंदु आ जाता है। इस अनादिकालीन यात्रा में दो चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं-सम्यक्त्व और चारित्र। ये दो महान रत्न हैं। चारित्र की भी आधारभूमि सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं हो सकता। चारित्र के बिना सम्यक्त्व तो हो सकता है।
मैं कौन हूँ? मैं जीव हूँ। शरीर पुद्गल है। शरीर और आत्मा का संयोग जीवन है। जैसे मिट्टी और सोना मिले हुए हैं, पर दोनों का अस्तित्व अलग-अलग है। मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। पर कर्मों के बंध के कारण से शरीर साथ रह रहा है। बंध दो रूपों में होता है-पुण्य और पाप। जो आश्रव के द्वारा कर्मों का बंध होता है। आश्रव को रोकने वाला संवर है। संवर से नए कर्म तो नहीं बंधेंगे, पर पहले से बंधे कर्मों को काटने का उपाय है-निर्जरा-तपस्या। अनेक रूपों में तपस्या करके कर्मों को तोड़ा जा सकता है, हल्का किया जा सकता है। कर्मों के कटने पर आत्मा शरीर से अलग हो जाएगी, मोक्ष को प्राप्त हो जाएगी। यह सम्यक्त्व और तत्त्व बोध है। यथार्थ को जान लेना, उस पर यथार्थ श्रद्धा करना सम्यक्त्व है। सारे ज्ञान और तत्त्व बोध के अधिकृत प्रवक्ता तीर्थंकर होते हैं। अर्हत् हमारे देव हैं। पर वर्तमान में तीर्थंकर तो भरत क्षेत्र में नहीं हैं।
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्य होते हैं। अर्हत-केवल ज्ञानी ने जो कहा है, वो सत्य है, यथार्थ है। उस यथार्थ के प्रति हमारी श्रद्धा हो। कषाय मंद पड़ें। साथ में तत्त्व बोध का प्रयास हो। ये तीन आयाम हमारे सम्यक्त्व को पुष्ट रखने वाले संपोषण देने वाले सिद्ध हो सकते हैं। सम्यक्त्व के साथ चारित्र की दिशा में भी आगेे बढ़ें तो हम मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।
हर कोई संयमी तो नहीं बन सकता है, पर गृहस्थ श्रावक बन सकते हैं। सुमंगल साधना ग्रहण की जा सकती है। जितना त्याग होता है, उतना अच्छा है, आत्मा निर्मलत्व को प्राप्त हो सकती है। अणुव्रत को तो जैन-जैनेत्तर कोई भी स्वीकार कर सकते हैं। दिन-रात में एक सामायिक हो जाए। शनिवार की सामायिक तो अवश्य हो। पुनिया श्रावक जैसी सामायिक हो। अहमदाबाद जैसा बड़ा नगर, यहाँ लोगों में धार्मिकता भी है। श्रद्धा-भक्ति व साधु-साध्वियों की सेवा की भावना होना बड़ी बात है। ज्ञानशालाएँ भी अच्छी चलती हैं। युवकों-किशोरों में अच्छे संस्कार-धार्मिकता रहे।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि व्यक्ति मुक्ति पाने के लिए स्वयं का ज्ञान करे। तुम अपने दीपक स्वयं बनो, तुम्हें अपना मार्ग मिलेगा। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखें, तो मंजिल प्राप्त हो सकती है। हम अंतर्मुखी बनें। दूसरों के दोषों को देखें-सुनें नहीं, अंधे और बधिर बन जाएँ। स्वात्मदर्शी सुखी होता है। नजर बदली तो नजरिया बदल सकता है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि हमारा जीवन कुश के अग्रभाग पर टिकी ओस के समान अशाश्वत है; क्षणभंगुर है। मृत्यु असंभावी घटना है। जन्म और मृत्यु के बीच का समय जीवन है। हम ऐसा जीवन जीएँ कि इस मनुष्य जन्म का सार निकाल सकें। मुनि गौरव कुमार जी, जिनकी शिक्षा व कर्म भूमि अहमदाबाद रही है, उन्होंने पूज्यप्रवर के स्वागत में अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। साध्वी तरुणप्रभा जी एवं साध्वी हिमप्रभा जी आदि साध्वियों ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की।
ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने पूज्यप्रवर के साहित्य पर सुंदर प्रस्तुति दी। किशोर मंडल व स्थानीय जैन संस्कारकों ने गीत से अपनी भावना अभिव्यक्त की। अणुव्रत समिति के मंत्री सुरेश बागरेचा एवं कार्पोरेटर प्रतिभा बेन ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। स्थानीय सभा द्वारा प्रकाशित तेरापंथ समाचार का विशेषांक पूज्यप्रवर को उपहृत किया। वनिता-सुरेंद्र बाफना ने महासर्वोतरभद्र तप के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।