मुनि कमल कुमार
भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के 24वें अर्थात् अंतिम तीर्थंकर थे, जिनका जन्म बिहार के क्षत्रिय कुंड ग्राम में पिता सिद्धार्थ, माता त्रिशला के घर हुआ। आपका जन्म नाम वर्धमान था। भगवान महावीर नाम दीक्षा के पश्चात हुआ। ऐसे आपके कई नाम थे। वर्धमान, ज्ञातपुत्र, सन्मति, वीर, अतिवीर, श्रमण महावीर। परंतु आज आप महावीर नाम से जाने जाते हैं। भगवान महावीर ने युवा अवस्था में बेले की तपस्या में दीक्षा ली और जीवन-भर बेले से कम की तपस्या का वर्णन नहीं आता है। उनकी उत्कृष्ट तपस्या 6 मास की थी। भगवान की तपस्या चौविहार थी, उन्होंने तपस्या में जल भी ग्रहण नहीं किया। साधना काल में भगवान को भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ा; परंतु उन्होंने सभी कष्टों को समता भाव से सहन कर भव संचित कर्म खपा दिए। उन्हें बेले की तपस्या में ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। जब तक केवल ज्ञान नहीं हुआ तब तक आप पूर्ण मौन ध्यान की साधना में लीन रहें, केवल ज्ञान होने के बाद आपने उपदेश प्रारंभ किया, परंतु उस समय वह उपदेश देवों के मध्य हुआ। देवता सेवा, उपासना कर सकते हैं, परंतु व्रतों को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए प्रथम देशना में कोई भी व्रती नहीं बना। दूसरे देशना में व्रती बनने लगे और 4 तीर्थ की स्थापना हो गई। भगवान का उपदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए होता। उनके प्रवचन में सिंह और बकरी, खरगोश और सियार, चूहे और बिल्लियाँ भी पास-पास बैठकर उपदेश सुनते। भगवान का अतिशय था कि सभी आपसी वैमनस्य को भूलकर एक-दूसरे के सहायक बन जाते। भगवान महावीर 30 वर्ष गृहवासी रहे, साढ़े बारह वर्ष साधना काल में लगे और 30 वर्ष तक पैदल विहरण कर जनकल्याण करते रहे। भगवान के उपदेश से ही सतीप्रथा, दासप्रथा जैसी कुरीतियाँ समाप्त हुई। भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म का निरूपण कियाµआगार धर्म और अणगार धर्म। अर्थात् गृहस्थ लोगों के लिए अणुव्रत और साधुओं के लिए महाव्रतों का विधान बनाया।
भगवान का मुख्य लक्ष्य था कि व्यक्ति जयादा से ज्यादा अहिंसा, संयम और तप का आचरण करे। हिंसा, असंयम और भोग, भव, भ्रमण को बढ़ाने वाले हैं। इन पर नियंत्रण होने से ही व्यक्ति स्वस्थ, मस्त और विश्वस्त बन सकता है। भगवान का उपदेश आज भी उतना ही आवश्यक है, जितना उस समय था। आज हम देख रहे हैं रोग बढ़ते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण आज असंयम ही है। हमारा संयम ही हमें समाधि और शांति प्रदान कर सकता है। भगवान के मुख्य सिद्धांत अहिंसा, अनेकांत, अपरिग्रह, समन्वय आदि को अपनाया जाए तो आज जो व्यक्ति-व्यक्ति में तनाव, टकराव, अलगाव, दुराव, मनमुटाव बढ़ रहा है और उस पर नियंत्रण हो सकता है।
भगवान ने कहा था कि मित्ति में सव्व भूएसु अर्थात् सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री हो। वह धन से नहीं अच्छे मन और चिंतन से ही हो सकती है। धन से ही अगर शांति होती तो जैन धर्म के तीर्थंकर राज परिवार से ही नहीं 3 तीर्थंकर तो चक्रवर्ती थे, चक्रवर्ती की संपदा के सामने आज के धनाढ्य नगण्य से नजर आते हैं। अतीत में भी शांति और समाधि अहिंसा, संयम और तप से प्राप्त होती थी। वर्तमान में भी इन्हीं तत्त्वों से शांति प्राप्त की जा सकती है। महावीर जयंती पर हम भी भगवान महावीर के सिद्धांतों को आत्मसात करने का प्रयास करें, तभी हमारी जयंती मनानी सार्थक होगी। वर्तमान में महावीर के जय नारे लगाने वालों की संख्या बढ़ रही है, आवश्यकता है कि हम महावीर के उपदेशों को अपनाएँ, जिससे परिवार, समाज, देश और विश्व में शांति और आनंद का वातावरण बन सके। इसी शुभकामना के साथ।