आचार्य भिक्षु को श्रद्धा से नमन

आचार्य भिक्षु को श्रद्धा से नमन

मुनि कमल कुमार
यह संसार अनादिकाल से चल रहा है। इसमें आने और जाने का क्रम शाश्वत है। प्रत्येक आत्मा आठ कर्मों से आबद्ध है। व्यक्ति अपने कर्मानुसार गति जाति आयुष्य सुख-दुःख, मान-अपमान, ज्ञान आदि को प्राप्त करता है। हम यह यहाँ साक्षात देख रहे हैं कि एक ही परिवार में जन्म लेने वाले व्यक्ति सबके पुण्य, पाप स्वतंभ होते हैं। एक व्यक्ति हर तरह से स्वस्थ-मस्त, विश्वस्त होता है। उसी प्रकार दूसरा व्यक्ति हर दृष्टि से अस्त-व्यस्त रहता है। यह सब अपने कर्मों का ही फल मानना चाहिए। जैसे एक ही क्यारी में बोए गए फल-फूलों का आकार-प्रकार गुण भिन्न-भिन्न होता है, जबकि एक व्यक्ति ही बुवाई करने वाला है। एक ही सिंचाई करने वाला है, एक ही व्यक्ति हर तरह से सुरक्षा करने वाला है। एक ही तरह की मट्टी है, परंतु बीज के अनुसार ही पौधे फल-फूल, पत्ते होते हैं, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति अपने कर्मानुसार ही सब कुछ प्राप्त करता है।
तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु एक ऐसे व्यक्ति थे, जिनके जन्म से पूर्व ही माँ को सिंह का स्वप्न आया था और हम उनके जीवन की ओर देखते हैं तो लगता है जन्म से लेकर अंतिम समय तक वे सिंह की तरह तेजस्वी बने रहे। लघुवय में पिता का स्वर्गवास हो गया। युवा अवस्था में पत्नी का वियोग हो गया, फिर भी आप निरंतर गतिमान बने रहे। दीक्षा के पश्चात आप अध्ययन और साधना की गहराई में उतरे तब आपको साधुत्व का बोध हुआ। आप जब कभी भी अपने दीक्षा प्रदाता गुरुदेव श्री रघुनाथ जी के पास अपनी जिज्ञासा का समाधान पाने जाते तब आपको समुचित उत्तर नहीं मिलता। फिर भी आप स्थिरमना गुरु सेवा के साथ साधना में लगे रहे।
एक बार मेवाड़ के प्रसिद्ध क्षेत्र राजनगर के श्रावकों की अश्रद्धा के समाचार मिले, तब पूज्यप्रवर ने सोचा अगर राजनगर के श्रावक श्रद्धाहीन हो गए तो इसका असर पूरे मेवाड़ पर हो सकता है। पूज्यप्रवर ने सोचा भीखण ज्ञानी-ध्यानी और पापभीरू हैं, इसमें हर तरह की क्षमता है, इसे राजनगर भेजना चाहिए। पूज्यप्रवर का आदेश पाकर भीखणजी राजनगर पधारे और देखा कि पूज्यप्रवर ने फरमाया था कि राजनगर के श्रावक शंकाशील हो गए हैं। साधु-साध्वियों के दर्शन भी नहीं करते, परंतु यहाँ के लोग तो श्रद्धाशील हैं, तभी सभी दर्शन प्रवचन का पूरा लाभ ले रहे हैं। एक दिन भीखणजी स्वामी ने वहाँ के वरिष्ठ श्रावकों से सारी बात की, तब श्रावकों ने स्पष्ट कहा कि यह तो श्रद्धा, भक्ति केवल आपके प्रति है, संघ के प्रति नहीं है। भीखणजी ने अश्रद्धा का कारण पूछा तब श्रावकों ने स्पष्ट कहा कि आज केवल चेले बनाने और स्थानक बनवाने का क्रम ही नजर आ रहा है। साधु अपने आचार को विस्मृत कर चुके हैं। वस्त्र पात्र आदि की कोई सीमा नहीं रही, इत्यादिक अनेक कारण बताए। भीखणजी ने सोचा इनकी बात अन्यथा नहीं है। श्रावकों ने निवेदन किया कि आप ज्ञानी संत हैं। आगम को पढ़कर बताएँ कि हमारी शंकाएँ निरर्थक तो नहीं हैं। स्वामी जी ने उस चतुर्मास में दो-दो बार आगम पढ़े और देखा श्रावकों की शंकाएँ निरर्थक नहीं हैं। परंतु स्वामी जी ने श्रावकों से कहाµमैं गुरुदेव के दर्शन कर सब निवेदन कर दूँगा, परंतु आप अपनी श्रद्धा को अटल रखें। स्वामी जी ने चतुर्मास के बाद गुरुदर्शन कर सारी बात रखी, परंतु कोई हल नहीं निकला। फिर भी स्वामी जी दो वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहे, परंतु जब देखा यहाँ कोई समाधान मिलने वाला नहीं है, तब चैत्रसुदी नवमी को बगड़ी नगर से अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण के बाद आपको आहार-पानी, स्थान, वस्त्र आदि का भयंकर अभाव रहा, परंतु स्वामी जी ने हर स्थिति को समभाव से सहन किया। उसी का सुपरिणाम है यह हमें नंदनवन-सा तेरापंथ धर्मसंघ मिला है। हम सब स्वामीजी के मूल सिद्धांतों को समझकर औरों को भी समझाने का प्रयास करें, यही अभिनिष्क्रमण दिवस पर सच्ची श्रद्धांजलि होगी।