मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी

ध्यान का फल

इसे स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत कियाµपुराने जमाने की बात है। मगधदेश में देवरापुर नाम का नगर था। वहाँ दो मित्र थे। एक का नाम राम था। वह बनिए का बेटा था। दूसरे का नाम नागदत्त था। वह ब्राह्मण का बेटा था। उन दोनों में बहुत प्रेम था। वे सुख से रह रहे थे। एक दिन वहाँ राज्यविद्रोह हो गया। चारों ओर लूट मच गई। तब वे दोनों वहाँ से दौड़े और दक्षिणापथ की ओर चले गए। एक बार वे दोनों काठ लाने के लिए जंगल में गए। वहाँ महाबल नाम के साधु कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े थे। ध्यानलीन होने के कारण वे पर्वत की भाँति अडोल थे। उन्होंने साधु को देखा। वह जीवन में पहला ही अवसर था। वे उन्हें अपलक देखते रहे। थोड़ी देर बाद एक बड़ा-सा साँप बिल में से निकला और सीधा साधु के पास जा पहुँचा। उन्हें डसकर वापस बिल में घुस गया। साधु अब भी वैसे ही खड़े थे। ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए। उनके शरीर में विष भी नहीं व्यापा। राम और नागदत्त को बहुत आश्चर्य हुआ। साधु ने कायोत्सर्ग पूर्ण किया। वे साधु के पास गए, वंदना की और बोलेµभगवन्! साँप ने आपको काटा तो आप पर असर नहीं हुआ? आप इस प्रकार कायोत्सर्ग में रहते हैं, क्या आपको सर्दी-गर्मी से कष्ट नहीं होता? साधु ने कहाµमहानुभावो! जो ध्यान-कोष्ठ में स्थिर होता है, वह बाहरी स्थिति से प्रभावित नहीं होता। सर्दी-गर्मी आदि से बाधित नहीं होता, यह मेरा अनुभव है।
इस ध्यान-कोष्ठ में शीत लहर का कोई असर नहीं होता और न तेज हवा से उद्वेलित अग्नि भी अपना प्रभाव दिखा पाती है। भयंकर कोलाहल वहाँ बाधा नहीं डाल सकता और साँप आदि विषैले जंतु वहाँ पीड़ा उत्पन्न नहीं कर सकते। इन शारीरिक कष्टों की क्या बात है, वहाँ मानसिक कष्ट भी नहीं पहुँच पाते हैं। ईर्ष्या विषाद, शोक आदि तिने भी मानसिक कष्ट हैं, वे सब ध्यानलीन व्यक्ति के सामने निर्वीर्य बन जाते हैं।
(2) ऊनोदरिका-रसपरित्यागोपवास-स्थान-मौन-प्रतिसंलीनता- स्वाध्यायभावना व्युत्सर्गास्तत् सामग्र्यम्।।
(3) अल्पाहार ऊनोदरिका।।
(4) दुग्धादिरसानां परिहरणं रसपरित्यागः।।
(5) अशनत्याग उपवासः।।
(2) ऊनोदरिका, रस-परित्याग, उपवास, स्थान-आसन, मौन, प्रतिसंलीनता, स्वाध्याय, भावना और व्युत्सर्गµये सब ध्यान के सहायक तत्त्व हैं।
(3) ऊनोदरिका का अर्थ हैµकम खाना, परिमित खाना, आँतों पर किंचित् भी भार न डालना।
(4) यथोचित रीति से दूध आदि रसों का वर्जन करना रसपरित्याग है।
(5) यथाशक्तिµमन आर्त्त न हो, वैसे अशन का त्याग करना उपवास है।

ध्यान और आहार
ध्यान का संबंध जितना मन से है, उतना ही शरीर से है। मस्तिष्क जितना भार-मुक्त होता है, उतना ही ध्यान अच्छा होता है। मस्तिष्क का भार-मुक्त होना आमाशय, पक्वाशय और मलाशय की शुद्धि पर निर्भर है। इनकी शुद्धि के लिए भोजन पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। जो आदमी भरपेट खाता है, वह ध्यान नहीं कर सकता। जो ध्यान करना चाहे उसके लिए पेट को हल्का रखनाµकम खाना बहुत आवश्यक है।
आयुर्वेद के अनुसार भूख के चार भाग किए जाते हैं। दो भाग भोजन करना चाहिए, एक भाग पानी और एक भाग भोजन के बाद बनने वाली वायु के लिए छोड़ देना चाहिए। दो भाग खाना परिमित भोजन है। परिमित भोजन करना ऊनोदरिका की मर्यादा है।
भोजन के एक घंटा बाद पानी पीने और वायु बनने पर पेट हल्का रहे, कोई भार प्रतीत न हो तो समझा जा सकता है कि भोजन परिमित हुआ है।
अधिक खाने वाले व्यक्ति का अपानवायु दूषित होता है। उसके मानसिक और बौद्धिक निर्मलता नहीं होती। बहुत खाने से पाचन ठीक नहीं होता। उससे वायु-विकार (गैस) बढ़ जाता है। मन की एकाग्रता के लिए वायु-विकार संभवतः सबसे बड़ा विघ्न है। इन सब कारणों के आधार पर हम ध्यान और ऊनोदरिका का संबंध समझ सकते हैं।
प्रश्नµध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए स्निग्ध और मधुर भोजन का विधान है, उस स्थिति में रस-परित्याग कैसे आवश्यक हो सकता है?
उत्तरµध्यान के लिए वीर्य-शुद्धि या ब्रह्मचर्य बहुत आवश्यक है। दूध, घी आदि रसों का प्रचुर सेवन करने से वीर्य पर्याप्त मात्रा में बढ़ता है। वह कामवासना को उत्तेजित करता है। उससे मानसिक चंचलता बढ़ती है और वीर्य दोष उत्पन्न होते हैं। यदि वीर्य-संचित रहता है तो मन की चंचलता बनी रहती है और यदि उसका विसर्जन किया जाता है तो उससे स्नायविक दुर्बलता बढ़ती है। स्नायविक दुर्बलता वाले व्यक्ति के मन का संतुलन नहीं हो सकता। मानसिक संतुलन के अभाव में ध्यान की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसीलिए रसों का प्रचुर मात्रा में सेवन करना ध्यानाभ्यासी के लिए हितकर नहीं है।
रस-परित्याग का संबंध अस्वादवृत्ति से है। जिसका मन स्वाद-लोलुपता में अटका रहता है उसके लिए ध्यान करना बहुत कठिन है, ध्यानाभ्यास के लिए वैषयिक अनुबंधों से मुक्त होना बहुत आवश्यक है। वैषयिक अनुबंधों में स्वाद का अनुबंध बहुत तीव्र होता है। उसके परिणामों पर विचार करने पर ध्यान और यथावकाश रस-परित्याग का संबंध बोध सहज ही हो जाता है।
रस-परित्याग की निश्चित मर्यादा करना कठिन है। फिर भी उसके विषय में कुछ रेखाएँ खींची जा सकती हैंµ
(1) ध्यानाभ्यासी के लिए अधिक मात्रा में दही खाना उचित नहीं है। उससे शारीरिक और बौद्धिक जड़ता उत्पन्न होती है।
(2) तली हुई चीजों से पाचन पर अनावश्यक भार पड़ता है, इससे वे भी हितकर नहीं हैं।
(3) चीनी से अम्लता बढ़ती है और रक्त में गर्मी बढ़ने के कारण कुछ उत्तेजना भी बढ़ती है। इसलिए चीनी का संयत प्रयोग ही हितकर हो सकता है।
(4) दूध दिन-भर में पाव या आधा सेर लिया जा सकता है किंतु मस्तिष्क-संबंधी कार्य के लिए उससे निष्पन्न होने वाली शक्ति की खपत हो तो।
(5) वायु और पित्त के शमन के लिए एक या दो तोला घी लिया जा सकता है किंतु उसकी अधिक मात्रा अपेक्षित नहीं है। घी सर्वाधिक वीर्यवर्धक वस्तु है। उसके अधिक सेवन का अर्थ हैµअधिक वीर्य की उत्पत्ति और वीर्य के अधिक होने का अर्थ है वासना को उभारना। यह स्थिति ध्यान के लिए अनुकूल नहीं है।
जैन साधना-पद्धति में दीर्घकालीन ध्यान को बहुत महत्त्व दिया गया है। तीन घंटा ध्यान करना ध्यान की सामान्य काल-मर्यादा है। उसकी दीर्घकालीन मर्यादा हैµकई दिनों या महीनों तक लगातार ध्यान करना। भगवान् महावीर ने सोलह दिन-रात तक निरंतर ध्यान किया था। इस प्रकार का ध्यान वही व्यक्ति कर सकता है जो भूख पर विजय पा लेता है।
केवल भूखा रहना अनशन नहीं है किंतु ध्यान की साधना के लिए भूख पर विजय पा लेना अनशन है। यह शरीर को कष्ट देने की स्थिति नहीं है किंतु आत्मानुभूति की गहराई में बैठकर सहज आनंद का स्पर्श करने की स्थिति है।
भूखा रहने से शारीरिक और मानसिक ग्लानि न हो, स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न न आए तब तक उपवास किए जा सकते हैं। यही उपवास की मर्यादा है। सबकी शक्ति समान नहीं होती, इसलिए उसकी मर्यादा भी भिन्न-भिन्न होती है। दीर्घकालीन ध्यान के लिए उपवास करना स्वतः प्राप्त है। अतः अनशन ध्यान की विशिष्ट साधना का सहायक तत्त्व है।
(6) शरीरस्य स्ाििरत्वापादनं स्थानम्।।
(7) ऊर्ध्व-निषीदन-शयनभेदात् त्रिधा।।
(8) समपाद-एकपाद-गृध्रोड्डीन-कायोत्सर्गादीनि ऊर्ध्वस्थानम्।।
(9) गोदोहिका-उत्कटुक-समपादपुता-गोनिषद्यिका-हस्तिशुण्डिका- पद्मवीर सुख-कुक्कुट-सिद्ध-भद्र-वज्र-मत्स्येन्द्र-पश्चिमोत्तान- महामुद्रासंप्रसारण-भूनमन- कंदपीडनादीनि निषीदनस्थानम्।।
(10) दण्डायत-आम्रकुब्जिका-उत्तान-अवमस्तक-एकपार्श्व-ऊर्ध्वशयनलकुट- मत्स्यपवनमुक्त-भुजंग-धनुरादीनि-शयनस्थानम्।।
(11) सर्वांग शीर्षादीनि विपरीत क्रियापादकानि।।
(6) विधिवत् शरीर को स्थिर बनाकर बैठना स्थानµआसन कहलाता है। यह कायगुप्ति है।
(7) स्थान तीन प्रकार के होते हैंµ(1) ऊर्ध्व-स्थान, (2) निषीदन-स्थान, (3) शयन-स्थान।
(8) खड़े होकर किए जाने वाले स्थानों का नाम ‘उर्ध्व-स्थान’ है। उसके कुछ प्रकार ये हैंµ
(1) समपाद, (2) एकपाद, (3) गृध्रोड्डीन, (4) कायोत्सर्ग।
(9) बैठकर किए जाने वाले स्थानों का नाम ‘निषीदन स्थान’ है। उसके कुछ प्रकार ये हैंµ
(1) गोदोहिका, (2) उत्कटुकासन, (3) समपादपुता, (4) गोनिषद्यिका, (5) हस्तिशुण्डिका, (6) पद्मासन, (7) वीरासन, (8) सुखासन, (9) कुक्कुटासन, (10) सिद्धासन,
(11) भद्रासन, (12) वज्रासन, (13) मत्स्येन्द्रासन, (14) पश्चिमोत्तानासन, (15) महामुद्रा, (16) संप्रसारणभूनमनासन, (17) कंदपीडनासन।
(10) लेटकर किए जाने वाले स्थानों का नाम ‘शयन-स्थान’ है। उसके कुछ प्रकार ये हैंµ
(1) दंडायतशयन, (2) आम्रकुब्जिकाशयन, (3) उत्तानशयन, (4) अवमस्तकशयन,
(5) एकपार्श्वशयन, (6) ऊर्ध्वशयन, (7) लकुटासन, (8) मत्स्यासन, (9) पवनमुक्तासन, (10) भुजंगासन, (11) धनुरासन।
(11) सर्वांगासन और शीर्षासन में विपरीतकरणी वाले स्थान हैं। (क्रमशः)