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स्वाध्याय

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(38) प्रत्ययार्थ×च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्।
यात्रार्थं ग्रहणार्थ×च, लोके लिङ्गप्रयोजनम्।।

लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के वेश की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और ‘मैं साधु हूँ’, ऐसा ध्यान आते रहनाµइस लोक में वेश-धारण के ये प्रयोजन हैं।

प्रश्न होता है कि मुनि के लिए वेश की क्या आवश्यकता है? प्रस्तुत श्लोक में वेश-धारण के तीन कारण बतलाए हैंµ(1) लोक-प्रतीति, (2) संयम-निर्वाह, (3) स्व-प्रतीति।
ये तीनों कारण मुनि की बाह्य और आंतरिक पवित्रता के हेतु बनते हैं।
(1) मुनि को अपने स्व-वेश में देखकर लोगों को यह प्रतीति होती है कि यह ‘मुनि’ है। इसके साथ हमारा क्या-कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, आदि।
(2) संयम-निर्वाह के लिए शरीर-रक्षा आवश्यक होती है। जहाँ शरीर है उसके निर्वहन की भावना है, वहाँ वस्त्रों का अपना स्थान है। जो व्यक्ति निष्पत्तिकर्म हो जाता है, वह चाहे वस्त्र रखे या नहीं, यह उसकी अपनी इच्छा है। किंतु जो शरीर को चलाता है, उसे उसकी रक्षा भी करनी पड़ती है। वस्त्र शरीर निर्वाह का एक उपाय है।
(3) तीसरा कारण हैµस्व-प्रतीतिं यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुनि-वेश में अपने को देखकर व्यक्ति के मन में यह अध्यवसाय निरंतर बना रहता है। कि ‘मैं साधु हूँ, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है। अपने अस्तित्व-बोध का यह अनन्य उपाय है। इससे जागरूकता और अप्रमत्तता का प्रादुर्भाव होता है।’

(39) अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु, मोक्षसद्भावसाधिका।
ज्ञान×च दर्शनं चैव, चारित्रं चैव निश्चये।।

यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञाµसंकल्प हो तो निश्चय-दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।
मोक्ष के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता है? सवस्त्र होना चाहिए या निर्वस्त्र? यह प्रश्न गौण है। मोक्ष शरीर नहीं है। वस्त्र, भोजन, पानी आदि शरीर की पूर्ति के साधन हैं। मुक्ति आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का चरम विकास मोक्ष है। अतः अंतरंग साधन ये हैं। वेश आदि बहिरंग साधन हैं।
(क्रमशः)