उपासना
उपासना
(भाग - एक)
आचार्य तुलसी
अणगार मेघ
मेघमुनि को प्रभु की वाणी सुनते-सुनते जाति-स्मरण हो आया। झुलसते हुए मैदान को देखकर रोंगटे खड़े हो गए। प्रभु के पैरों में गिरकर दोषों की आलोचना की। मन को स्थिर करके पुनः व्रतों में सुस्थिर बने। अपने आपको संघ के प्रति समर्पित करते हुए मेघमुनि ने कहा-‘प्रभुवर! मैं मेरी इन दो आँखों के सिवाय समूचा शरीर साधु-संतों की परिचर्या के लिए समर्पित करता हूँ। आप जैसे भी चाहें इसका उपयोग करें। केवल ये दो आँखें मैं ईर्याशोधन के लिए मेरे अधिकार में रखता हूँ। सारा शरीर आपके लिए समुपस्थित है।’
यों समर्पित होकर उत्कट परिचर्या, संयम-साधना, तप-आराधना मे जुटे। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। गुणरत्न संवत्सर आदि विभिन्न प्रकार के तप किए। अंत में सब संतों से क्षमायाचना करके प्रभु की आज्ञा लेकर एक महीने के अनशन में समाधिमरण प्राप्त किया। सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष में जाएँगे।
नंदीषेणकुमार
नंदीषेणकुमार राजगृह के महाराज श्रेणिक के पुत्र थे। भगवान् महावीर का उपदेश सुनकर कुमार विरक्त हो गया। जब साधु बनने को तैयार हुआ तब देववाणी हुई-‘नंदीषेण! तुम्हारे अभी भोगवाली कर्म अवशेष हैं, इसलिए तुम अभी अनगार मत बनो।’ नंदीषेण ने बड़े साहस के साथ कहा-‘क्या मैं इतना कायर और सत्त्वहीन हूँ? सभी भोग्यकर्मों को तप-संयम के द्वारा क्षय कर दूँगा पर संयम अवश्य लूँगा। मेरी साधना में कोई बाधक नहीं बन सकता।’ यों कहकर दीक्षा ले ली। विविध भाँति की तप-साधना में तल्लीन हो गए। तप के प्रभाव से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं।
एक दिन भिक्षार्थ गए। संयोगवश एक वेश्या के घर पहुँच गए। भिक्षा का योग पूछा। तब कटाक्ष फेंकती वेश्या ने कहा-‘यदि पास में कुछ है तो योग बहुत है, भूखे फकीरों के लिए यहाँ कुछ भी नहीं है।’
वेश्या का व्यंग्य सुनकर मुनि का अहं भभक उठा-इसने मुझे पहचाना ही नहीं और मुझे भिखमंगा समझ लिया। फिर क्या था? अपने लब्धि-बल का उन्होंने प्रयोग किया और धन का ढेर लग गया। मुनि ने घूरकर उस वेश्या की ओर देखा और जाने लगा। वेश्या भी इन बातों में विशेष दक्ष थी। आगे आकर बोली-‘उठाइए अपना धन, मुझे मुफ्त का धन नहीं चाहिए। मेरे साथ रहकर कुछ देना चाहो तो सादर आमंत्रित हैं अन्यथा मैं इस हराम के धन का क्या करूँ?’
वेश्या के दो-चार वाक्य-बाण और नयन-बाणों से ही मुनि फिसल गए। साधु-वेश को तिलांजलि दे दी, पर मन में सात्त्विक ग्लानि अवश्य थी। सोच रहे थे-मैं राजपाट छोड़कर साधु बना। कहाँ फँस गया, पर करे क्या? वेश्या के यहाँ रहे तो सही पर मन में संकोच अवश्य था। उस उदासी को मिटाने के लिए एक संकल्प कर लिया कि मैं प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर ही अन्न-जल ग्रहण करूँगा। इस दुष्कर प्रतिज्ञा को कई वर्ष हो गए।
एक दिन नौ व्यक्ति तो समझ गए। पर दसवाँ एक स्वर्णकार मिला। उसे जब प्रतिबोध देने लगे तब व्यंग्य कसते हुए उसने कहा-‘यह क्या ढोंक रचा रखा है? स्वयं तो साधुत्व को छोड़ वेश्या के साथ रह रहे हो और दूसरों को प्रतिबोध देने चले हो।’ यों इस बक-झक में काफी समय हो गया। भोजन के लिए बुलाने को पहले लड़का आया फिर वेश्या स्वयं आई। नंदीषेण ने कहा, ‘अभी नौ ही प्रतिबुद्ध हुए हैं, दसवाँ बाकी है।’ वेश्या ने सहजता से कहा-‘दसवें स्वयं आप ही बन जाइए, पर खाना तो खाइए।’
नंदीषेण का सोया आत्मबल जग गया। भगवान् महावीर के समवसरण की ओर चल पड़े। वेश्या ने बहुत कहा पर नंदीषेण अब रुकने वाले नहीं थे। प्रभु के पास जाकर अपने पापों का प्रायश्चित्त किया। पुनः संयम में सुस्थिर होकर तपस्या में लीन हो गए और तपःसाधना करते हुए आयु पूर्ण कर देव बने।
(क्रमशः)