भगवान महावीर जन्म कल्याणक

भगवान महावीर जन्म कल्याणक

डॉ. समणी ज्योतिप्रज्ञा
सव्वभूयरवेमंकरी-अहिंसा सब प्राणियों के लिए क्षेमंकर है। अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परम धर्म है। धम्मो मंगलमुक्किट्ठं-अहिंसा उत्कृष्ट मंगल है। एस धम्मे धुवे णिइए सासए-अहिंसा धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत है। पाँच महाव्रतों व बारह व्रतों में अहिंसा का प्रथम स्थान है। अहिंसा है तो जीव का अस्तित्व है। ब्रह्मांड के सभी ग्रंथों व पंथों ने एक स्वर से अहिंसा की शक्ति को स्वीकार किया है। आचार्य तुलसी ने अहिंसा को माता कहा है। अहिंसा रूपी माता से ही जीव का पालन-पोषण, संरक्षण व संवर्धन होता है। अहिंसा ही एकमात्र सुख की राह है। अहिंसा ही भवसागर से पार पहुँचाने वाली नौका है। अहिंसा ही वह शरठास्थली है जहाँ जीव निर्भय होकर विचरण करते हैं। जन्मजात बैरी प्राणी भी प्रेमपूर्वक निकट बैठते हैं।
आज हिंसा का बोलबाला है। सुबह आँख खोलने से रात को आँख मूँदने तक व्यक्ति हिंसक दृश्य देखते हैं। दूरदर्शन पर व पत्र-पत्रिकाओं में हिंसा, अपहरण, शोषण, लूटपाट, चोरी-डकैती के समाचार सुर्खियों में होते हैं। दिल दहलाने वाली खबरें सुनकर भी मानव का दिल नहीं पिघलता है। आज राष्ट्र राष्ट्र से, समाज समाज से, परिवार परिवार से व्यक्ति व्यक्ति से भयभीत है। असुरक्षित अनुभव कर रहा है। इस भय का एकमात्र कारण है-हिंसा। इस हिंसक युग में अहिंसा का मूल्य और अधिक बढ़ गया है। प्राणी मात्र अहिंसा की पुकार कर रहा है। प्रश्न होता है कि वह अहिंसा क्या है? प्रश्न का समाधान ।भ्प्डै। शब्द से ही स्पष्ट होता है।
। - ।अवपकंदबम व;ि भ् - भ्ंतउ; प् - प्दजमदकमक इल; ड - डपदक; ै - ैचमंबी; । - ।बजपवदण्
कर्म, वाणी व मन से जानबूझकर किसी को हानि पहुँचाने का परिहार करना अहिंसा है। हिंसा तीन प्रकार से होती है-मन, वाणी, कर्म से। इन तीनों योगों का दुष्प्रयोग हिंसा व सदुपयोग अहिंसा है।
मानसिक हिंसा-जो हिंसा मन, विचार व भावों से संबंधित है वह मानसिक हिंसा है। यह एक दृष्टि से परोक्ष है। आचार्य तुलसी ने कहा है-‘मन रो पाप मन ही जाणै’।
इसे कारण, जनक या मूल हिंसा भी कहा जाता है, क्योंकि यह वाचिक व कायिक हिंसा का हेतु बनती है। आचार्य महाप्रज्ञ कहते थे-युद्ध पहले मस्तिष्क में लड़ा जाता है, धरती पर तो बाद में लड़ा जाता है। आगमों में हिंसा के दो प्रकार मिलते हैं-द्रव्य और भाव। मानसिक हिंसा भाव हिंसा में परिगणित है। भाव के बिना द्रव्य हिंसा का जन्म नहीं होता। भाव हिंसा यानी निषेधात्मक विचार जहाँ-जहाँ प्रमाद व असंयम वहाँ-वहाँ हिंसा। जहाँ-जहाँ अप्रमाद व संयम वहाँ-वहाँ अहिंसा। अप्रमत्त संयती से यदि द्रव्य हिंसा हो भी जाए तो उसे दोष नहीं लगता। प्रमत्त संयमी से यदि हिंसा न भी हो तो उसे प्रमाद का दोष लगता है। स्पष्ट है कि हिंसा का संबंध प्रमाद से है और अहिंसा का संबंध जागरूकता से।
संस्कृत सूक्त है-‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः’।
मनुष्यों के बंधन व मुक्ति का हेतु मन ही है। मुनि प्रसभचंद्र की घटना मानसिक हिंसा व अहिंसा का सुंदर निदर्शन है। मुनि प्रसभचंद्र जंगल में ध्यान-मुद्रा में खड़े थे। निकृष्ट भावों से वे सातवीं नरक तथा कुछ समय बाद उत्कृष्ट पवित्र विचारों से केवल ज्ञान की भूमिका तक पहुँच गए। तंदुलमत्स्य-एक छोटा-सा चावल के आकार का पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव, जो मत्स्य की पलक पर रहता है। जीव-भक्षण के क्रूर विचारों से अद्योगति में चला जाता है। काल सौकारिक कसाई कुएँ में बैठे-बैठे मिट्टी के खिलौने स्वरूप पाँच सौ भैंसें बनाता है तथा उन्हें मारकर अपना संकल्प पूरा करता है। त्रिपृष्ठ वासुदेव (भगवान महावीर) की आत्मा क्रोधावेश में शय्यापालक की हत्या करवाता है। ये सब दृष्टांत मानसिक हिंसा के परिणाम हैं। मिथ्यादृष्टिकोण, अविरति, अंतहीन इच्छाएँ, भय, घृणा, राग-द्वेष, स्पर्धा, प्रदर्शन-भावना, आसक्ति, अपमान करना आदि मानसिक हिंसा की लंबी लिस्ट है। शत्रु उतना बुरा नहीं, जितना शत्रुता का भाव, क्योंकि दूसरों के प्रति अनिष्ट चिंतन से अपना अहित पहले ही हो जाता है। मानसिक अहिंसा के अभ्यास हेतु वीर वाणी के ये सूत्र आदर्श हैं: स मेत्तिं भूएसु कप्पए स आय तुले पयासु स दिट्ठिं पडिसमाहरे स सव्वे जीवा वि इच्छंति स तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा। अहिंसा प्रशिक्षण का प्रथम सूत्र है-भावविशुद्धि।
वाचिक हिंसा-वचनों से उत्पन्न होने वाली हिंसा वाचिक हिंसा कहलाती है। श्रोता को जिन वचनों से कष्ट पहुँचता है। यह प्रत्यक्ष है। वाचिक हिंसा का मुख्य हेतु है-वाणी। वाणी जब बाण बन जाती है, तब हिंसा साकार होती है। आचार्य तुलसी ने प्रवचन माता के अंतर्गत वचन गुप्ति के संदर्भ में गाया है-‘झगड़ै री जड़ है आ बोली’।
अठारह पापों में कलह, निंदा, पैशुन्य, परपरिवाद करने वाले अकारण ही अनल्प वाचिक हिंसा कर लेते हैं। कटु वचन सत्य होने पर भी वर्ज्य हैं, क्योंकि वह श्रोता के तन पर नहीं, दिल में घाव करते हैं। द्रौपदी के एक कटु वचन से पूरा कौरव वंश समाप्त हो गया। दसवेंआलियं सूत्र कहता है-‘तहेव काठां काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा’।
मुनि काठो को काठा, नपुंसक को नपुंसक, चोर को चोर न कहे। यह कटु सत्य है। उसी प्रकार अनावश्यक, अपमानात्मक, संशयात्मक, निश्चयात्मक, मर्म-भेदक, मायामृषा, पुरुष, अपशब्द, झूठ गवाही, धरोहर नकारना, गलत मार्गदर्शन करना वाचिक हिंसा है। बही खातों में अप्रमाणिक लेख लिखना, अल्पमूल्य को बहुमूल्य कहना, कम वस्तु को अधिक कहना वचन संबंधी दोष तो हैं ही, ध्वनि प्रदूषण भी है। गलत शब्दों के प्रयोग से होने वाला ध्वनि प्रदूषण कल-कारखानों के ध्वनि प्रदूषण से भी अधिक खतरनाक है। दुष्प्रयुक्त वचन की तरंगें संबंधित व्यक्ति के पास पहुँचकर निषेधात्मक विचार उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार वचन से मन और मन से वचन की हिंसा चक्र अविरल घूमता रहता है।
वाचिक अहिंसा की साधना हेतु निम्न सूत्रों का विवेक अनिवार्य है: स हिंसगं न मुसं बुया स ना पुट्ठो वागरे कि×िच स मायामोसं विवज्जए स पिट्ठिमंसं न खाएज्जा स बहुयं मा य आलवे।
कायिक हिंसा-काया से होने वाली या की जाने वाली कायिक हिंसा है। यह हिंसा स्थूल है, दृष्टिगोचर है। इतिहास के झरोखे में देखें तो अर्जुनमाली, सुभूम चक्रवर्ती, दृढ़प्रहारी, रोहिणेय चोर, केसरी चोर, राजाप्रदेशी के नाम क्रू हिंसकों में प्रमुख हैं। आत्महत्या, भ्रूणहत्या मानवता के कलंक हैं।
आज जीवन का एक भी क्षेत्र हिंसा से अछूता नहीं रहा है। जैन श्रावक के लिए परिहार्य पंद्रह कर्मादान-मकान निर्माण, वन काटना, कोयले बनाना, कोल्हू लगाना, चक्की स्थापित करना, लाख बनाना, विष निर्माण इत्यादि व्यापारिक क्षेत्र में होने वाली कायिक हिंसा है। अणु बम निर्माण, अस्त्र-शस्त्रों के भंडार भरना, सेना को युद्ध प्रशिक्षण देना सुरक्षात्मक क्षेत्र में होने वाली हिंसा है। बीज बोने, सिंचाई करने, फसल काटने में होने वाली कृषि संबंधी हिंसा है। दवाओं के निर्माण व प्रयोग में अनेक स्थावर त्रस प्राणियों की हिंसा चिकित्सा संबंधी हिंसा है। यातायात साधन कार, ट्रेन, प्लेन के बनाने, विक्रय करने, चलाने आदि से संबंधित हिंसा संचार के क्षेत्र में हिंसा है। सौंदर्य प्रसाधन सामग्री में निर्दोष प्राणियों की मूक बलि बीसवीं सदी की देन है। लूटना, पीटना, मारना, डाका डालना, अपहरण, शोषण, बाँधना, जेल में रखना आदि कायिक हिंसा के अनेक रूप हैं। प्रकृतिगत असंतुलन से भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़, सुनामी के कारण महान अनर्थ हो जाता है। जन धन की अपूरणीय क्षति हो जाती है।
कायिक अहिंसा के प्रशिक्षण का सफलतम सूत्र है-कायोत्सर्ग, कायगुप्ति - हत्यसंजए पायसंजए।
भगवान महावीर ने गौतम को समाधान की भाषा में कहा-कायगुप्ति से संवर होता है। संवर मोक्ष का हेतु है। अहिंसा है।
अस्तु! मानव मात्र के लिए कल्याणकारी अहिंसा जन-जन के आचरण में आए, तभी धरती पर सुख व शांति अवतरित हो सकती है।