भक्तियोग की श्रेष्ठ साधिका - शासनमाता

भक्तियोग की श्रेष्ठ साधिका - शासनमाता

कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश प्राप्त करते हुए अर्जुन ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया-
मन्यसे यदि तच्छक्यं, मया द्रष्टुमिति प्रभो!
योगेश्वर! ततो मे, त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।
अर्थात् हे प्रभो योगीश्वर! आपका वह रूप यदि देखा जाना राक्य हो, संभव हो, यदि मेरी ऐसी पात्रता हो तो आप अपना वह अविनाशी रूप दिखाने की कृपा करें। अर्जुन के निवेदन पर श्रीकृष्ण ने अपना परम ऐश्वर्य युक्त दिव्य स्वरूप दिखाया। उस दिव्य और विराट रूप को देखने वाले मात्र दो व्यक्ति थे-धृतराष्ट्र के सारथी संजय और कृष्ण भक्त अर्जुन। श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रूप को संजय और अर्जुन दोनों ने देखा किंतु दोनों के देखने में अंतर था। संजय केवल देख रहे थे और अर्जुन देखने के साथ उस परम सत्य व तत्त्व को हृदय की गहराई से अनुभव कर रहे थे।
मैं तेरापंथ धर्मसंघ की अष्टम् साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा को अर्जुन के रूप में देख रही हूँ जिन्होंने गुरुदेव तुलसी की कृपा का वह विराट रूप देखा। गुरुदेव तुलसी की कृपा तो शायद कईयों को मिली होगी, किंतु कृपा का वह विराट रूप शायद एकमात्र उनको ही मिला क्योंकि वह पात्रता एकमात्र उनमें ही अनुभव की गई। परम पूज्य गुरुदेव तुलसी स्वयं फरमाते थे-
सदा मे मंगलमयी माघी, कृष्णा त्रयोदशी।
यस्यां सुदुर्लभा लब्धा, सर्वर्द्धि श्रेयसी कला।।
अर्थात् माघ कृष्णा त्रयोदशी मेरे लिए सदा मंगलमय है। क्योंकि उस दिन मुझे अति दुर्लभ सब ऋद्धियों से संपन्न और श्रेयस्करी कला की उपलब्धि हुई। कृपा के उस विराट रूप को प्राप्त करने की पृष्ठभूमि में बोल रही है साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा की भक्ति। ‘अभिधान राजेंद्र कोष’ में ‘सेवायां भक्तिर्विनयः’ भक्ति को सेवा माना गया है। सर्वार्थसिद्धि में भाव विशुद्धियुक्तः अनुरागो भक्तिः-भावविशुद्धि को भक्ति कहा है। संस्कृत साहित्य में स्वस्वरूपानुसंधानं भक्ति-रित्याभिधीयते’ भक्ति का अर्थ अपने स्वरूप का अनुसंधान करना किया है।
शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के व्यक्तित्व में भक्ति के ये तीनों रूप स्पष्ट परिलक्षित होते थे-सेवा, भाव विशुद्धि और स्वस्वरूपा-नुसंधान। पंचसूत्रम् में आचार्यश्री तुलसी ने सेवा की महत्ता को उजागर करते हुए लिखा है-
महान्तो ज्ञानिनः सन्ति, महान्तो ध्यानिनस्तथा।
तेथ्योऽपि सुमहान्तश्च, सन्ति सेवापरायणाः।।
ज्ञानी भी महान् होते हैं और ध्यानी भी महान् होते हैं। किंतु सेवा-परायण मुनि उन सबसे महान् होते हैं। असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा सेवा धर्म की महान् साधिका, आराधिका और उपासिका थीं। उन्होंने तेरापंथ धर्मसंघ को अपनी अभूतपूर्व सेवाएँ प्रदान की। सेवापरायण साध्वीप्रमुखाश्री ने साध्वी समाज, समण श्रेणी और मुमुक्षु श्रेणी को शारीरिक, मानसिक और भावात्मक चित्त समाधि प्रदान करने में जो योगदान दिया वह अपने आपमें विलक्षण है।
उनके जीवनकाल का अंतिम चतुर्मास भीलवाड़ा में हुआ और अंतिम मर्यादा महोत्सव बीदासर में हुआ। उस समय अनेक बहिर्विहारी साध्वियों के सिंघाड़े उपस्थित थे। उन सबकी पृच्छा का कार्य अस्वस्थता की स्थिति में भी स्वयं साध्वीप्रमुखाश्री ने किया। असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री के सेवा की चेतना ने अनेक चारित्रात्माओं को चित्त समाधि का वरदान दिया।
भीलवाड़ा में साध्वी चंद्रिकाश्री असाध्य बीमारी से ग्रस्त थीं तब महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री प्रायः प्रतिदिन उनके पास पधारतीं। उन्हें मंगलपाठ, जप, स्वाध्याय सुनातीं तो कभी उन्हें श्लोक, दोहा कंठस्थ कराती और उनके मन की बात सुनतीं। कभी-कभी तो दिन में अनेक बार उनको संभालने पधार जातीं। उन्होंने अपने संपूर्ण संयम काल में अनेकानेक रुग्ण, ग्लान, अक्षम और रौक्ष साध्वियों की साधना में सहयोग दिया। आचार्यश्री तुलसी उनके संदर्भ में फरमाया करते थे-साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ने साध्वियों की तरफ से मुझे निश्चिंत बना दिया।
वे श्रावक समाज की आध्यात्मिक यात्रा में भी खूब सहयोगी रही। शोक संतप्त परिवारों को सेवा कराना हो या प्रतिदिन आने वाले दर्शनार्थियों को सेवा कराना हो, तत्त्वज्ञान समझाना हो, अधिवेशन, कॉन्फ्रेंस, प्रवचन-कार्यक्रम में विचाराभिव्यक्ति करनी हो अथवा घरों में गोचरी करने जाना हो। इन सब कार्यों के पीछे उनका लक्ष्य श्रावक समाज की सार-संभाल और उनकी आत्मिक उन्नति ही होता था। नारी उत्थान में भी महिला समाज को उनकी अमूल्य सेवाएँ प्राप्त हुईं। उन्होंने अपने मौलिक चिंतन और साहित्य से मानव जगत की विलक्षण सेवा की। इस प्रकार उन्होंने अपने समय, श्रम और शक्ति का नियोजन निरवद्य सेवा में कर संघ के प्रति अनन्य भक्ति का परिचय दिया।
भक्ति का दूसरा रूप है-भाव विशुद्धि। उपदेशामृत में लिखा है-
उत्साहान्निरचयाद् धैर्यात्, तत्तत् कर्म प्रवर्त्तनात्।
संगत्यागात्सतोवृत्तेः षड्भिर्मक्तिः प्रसिद्धयति।।
भक्ति भी तभी सफल-सिद्ध होती है, जब भक्त में ये छह गुण विकसित होते हैं। उत्साह, निश्चय, धैर्य, कर्तव्यनिष्ठा, आसक्ति-त्याग और सज्जनोचित व्यवहार।
संघ महानिदेशिका साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा का जीवन गुणों का समवाय था। वे धृति संपन्न साध्वीप्रमुखा थीं। व्यस्त से व्यस्त क्षणों में और कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वे कभी विचलित, व्यग्र या विक्षुब्ध नहीं हुईं। उन्होंने पाँच सौ से अधिक साध्वियों का नेतृत्व किया। उनका मार्गदर्शन और अनुशासन करते समय कभी उपालंभ भी देना पड़ता पर उनके चित्त और व्यवहार में प्रायः आवेश या उद्विग्नता नहीं दिखती थी। वे शांत व संतुलित रहतीं। वे समता, क्षमता और मतता की मूरत थीं।
आचार्यश्री तुलसी ने व्यवहार-बोध में साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा के लिए लिखा है-
साम्ययोग में सम्मुख, रखें महाश्रमणी को।
श्रम, सेवा, स्वाध्याय, प्रेरणा मिले सभी को।।
आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा का अंकन यथार्थता का अंकन है। विशिष्ट सम्मानपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित होते हुए भी ये अपने आपको सदा छोटी मानती हैं। किसी प्रकार का अहंकार इन्हें छू भी नहीं पाया है। संघ के छोटे साधु से भी हाथ जोड़कर बात करती हैं, मैं देखता रह जाता हूँ। साधुओ! विनम्रता सीखनी हो तो इनसे सीखें। भावविशुद्धि का ही परिणाम है कि उनके जीवन में निस्पृहता, विनम्रता तथा समत्व योग का विकास निरंतर होता रहा।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा की योग्यता का अंकन करते हुए कहा था-”इनकी विनम्रता को प्रथम श्रेणी में रखा जा सकता है। साध्वीप्रमुखा ने योग्यता की कसौटी में शत-प्रतिशत नहीं, सवा सौ नंबर प्राप्त किए हैं। हर दृष्टि से खरी उतरी हैं। सहिष्णुता में ये नंबर वन है। वैराग्य व साधुत्व के प्रति इनकी निष्ठा बेजोड़ है।“
आचार्य महाश्रमणजी फरमाते हैं-”ऐसी प्रबुद्ध साध्वीप्रमुखा का मिलना संघ का भाग्य है। साध्वी समाज का विशेष सौभाग्य है। आपमें विनय, समर्पण और निष्ठा का भाव अद्भुत है। मैंने देखा आपकी जो निष्ठा गुरुदेव श्री तुलसी के प्रति थी, वही श्रद्धैय आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रही और आज भी वह निष्ठा बढ़ी है।“ आचार्यों का इतना अनुग्रह उन्हें इसलिए प्राप्त हुआ क्योंकि वे सदा पवित्रता, विशुद्धता की साधना में संलग्न रही।
भावविशुद्धि रूप भक्ति के कारण ही साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ने गुरुत्रय के हृदय में तो उच्च स्थान प्राप्त किया ही संघ के हर सदस्य के लिए आश्वास व विश्वास बन गईं। अपनी पवित्रता से वे जन-जन के लिए श्रद्धास्पद बन गईं।
असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा के भक्ति-भावित व्यक्तित्व का तीसरा रूप है-स्वस्वरूप का अनुसंधान-भीतर छिपे परमात्मा स्वरूप की खोज-शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति। भक्ति के उत्तम स्वरूप को पाने के लिए उनके पास शक्तिशाली साधन था-गुरु दृष्टि: गुरु इंगित आराधन। दसवैकालिक का सूक्त है-‘गुरुप्परायाभिमुहोरमेज्जा’ सदैव गुरु प्रसाद के अभिमुख रहें। जब गुरु प्रसन्न और संतुष्ट होते हैं तब शिष्य पर उनका दिव्य आशीर्वाद बरसता है और वह दिव्य आशीर्वाद ही शिष्य की अंतः शक्तियों को प्रस्फुटित करता है।
असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा ने समर्पण, श्रद्धा, सेवा, संघनिष्ठा आदि असाधारण विशेषताओं के कारण गुरु को सदा प्रसन्न रखा तथा सदैव उनका अलौकिक आशीर्वाद प्राप्त किया। आचार्य की अलौकिक कृपा का ही एक साक्षात् रूप है-युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण द्वारा दिया जाने वाला ‘शासनमाता’ अलंकरण। शासनमाता जैसे विशिष्ट अलंकरण ने साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा के गौरव और उनकी महिमा को शिखरों चढ़ाया। इस अवसर पर गुरु भक्ति में तल्लीन शासनमाता का कहना यही था-”मैं ऐसा मानती हूँ कि आज जो जय-जयकार या अभिनंदन हो रहा, वह परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी का हो रहा है, आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का हो रहा है और आचार्यश्री महाश्रमण जी का हो रहा है। मैं जो कुछ करती हूँ, वह मैं नहीं करती, आचार्य स्वयं करते हैं या मुझसे कराते हैं। मैंने पचास वर्षों की यह यात्रा गुरुओं के बलबूते पर की है। उन्हीं के सहारे की है।“
उनके साँस-साँस में गुरु भक्ति बोलती थी। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है-”भक्ति से संचित कर्म क्षीण होते हैं।“ भक्ति से चित्त में राग-द्वेष की वृत्तियाँ क्षीण होने लगती हैं। मन इतना पवित्र और पारदर्शी बन जाता है कि भक्त को फिर भगवान को पुकारना नहीं पड़ता, खोजना नहीं पड़ता। यह सुना था कि गुरु शिष्य में जब तादात्म्य स्थापित हो जाता है तो शिष्य ही समर्पित नहीं होता गुरु भी शिष्य के प्रति समर्पित हो जाते हैं। इस सत्य का साक्षात् तब देखा जब असाध्य बीमारी से ग्रसित हो जाने के बाद अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करते हुए शासनमाता ने कहा-‘गुरु दर्शन करने हैं।’ और उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए आचार्य महाश्रमणजी ने लगातार एक सप्ताह तक दिन में दो-तीन विहार करते हुए 6 मार्च को 45ः5 किलोमीटर का प्रलंब विहार कर बालाजी एक्शन हॉस्पिटल में उन्हें दर्शन दिए। उस समय शासनमाता के कृतज्ञता भरे स्वर निकले-प्रभो! आपका यह महाश्रम मेरे लिए कल्याणकारी बने, मेरी आत्मा का उद्धार करने में परम उपकारी बने। भक्ति से परिपूर्ण इस मंगलकामना की परिपूर्ति भी तब प्रतीत हुई जब आचार्यप्रवर ने त्याग-प्रत्याख्यान के साथ-साथ आलोयणा के द्वारा समाधि और शुद्धि का पाथेय प्रदान किया। दोष-विशुद्धि करवाकर शासनमाता की आत्मोन्नति, आत्मपवित्रता में अनन्य सहयोग प्रदान किया। गुरु के प्रति अप्रकंप भक्ति ने शासनमाता को अंतिम साँस तक स्वस्वरूपानुसंधान की दिशा में अग्रसर रखा।
शासनमाता का जीवन भक्ति रस से ओतप्रोत था। उनका सेवा, भावविशुद्धि और स्वस्वरूपानुसंधान भक्ति रूप संघ एवं गुरु के प्रति अद्भुत भक्ति के रूप में प्रकट हुआ। उनका भक्ति भावित जीवन संपूर्ण संघ के लिए गौरव का विषय है। उनकी यह भक्ति संघ के लिए सदैव आदर्श एवं प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।