मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

मनोनुशासनम्

कायोत्सर्ग की विधि
कायोत्सर्ग बैठी, खड़ी और सोयी-तीनों मुद्राओं में किया जा सकता है। इसकी पहली प्रक्रिया शिथिलीकरण है। यदि आप बैठे-बैठे कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो सुखसन या पद्मासन लगाकर या पालथी बाँधकर बैठ जाइए। दोनों हाथों को या तो घुटनों पर टिकाए या बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर उन्हें अंक में रखिए। फिर पृष्ठवंश (रीढ़ की हड्डी) और गर्दन को सीधा कीजिए। यह ध्यान रहे कि उनमें न झुकाव हो और न तनाव हो। वे शिथिल भी रहें और सीधे-सरल भी। फिर दीर्घश्वास लीजिए। श्वास को उतना लंबाइए जितना बिना किसी कष्ट के लंबा सकें। इससे शरीर और मन दोनों के शिथिलीकरण में बड़ा सहारा मिलेगा। आठ-दस बार दीर्घ श्वास लेने के बाद वह क्रम सहज हो जाएगा। फिर शिथिलीकरण में मन को लगाइए। स्थिर बैठने से कुछ-कुछ शिथिलीकरण तो अपने आप हो जाता है। फिर विचारधारा द्वारा प्रत्येक अवयव को शिथिल कीजिए। मन को उसी अवयव में टिकाइए, जिसे आप शिथिल कर रहे हैं। अवयवों को शिथिल करने का क्रम यह रखिए-गर्दन, कंधा, छाती, पेट-दायें, बायें, पृष्ठभाग, भुजा, हाथ, हथेली, अंगुली, कटि, टाँग, पैर-अंगुली। फिर मांसपेशियों को शिथिल कीजिए। मन से शरीर के भाग और मांसपेशियों का अवलोकन कीजिए। इस प्रकार अवयवों और मांसपेशियों के शिथिलन के बाद स्थूल शरीर से संबंध-विच्छेद और सूक्ष्म शरीर से दृढ़ संबंध-स्थापन का ध्यान कीजिए।
सूक्ष्म शरीर दो हैं-(1) तैजस, (2) कार्मण।
तैजस शरीर विद्युत् का शरीर है। उसके साथ संबंध स्थापित कर प्रकाश का अनुभव कीजिए। शक्ति और दीप्ति की प्राप्ति का यह प्रबल माध्यम है।
कार्मण शरीर के साथ संबंध स्थापित कर भेद-विज्ञान का अभ्यास कीजिए।
इस भूमिका में ममत्व-विसर्जन हो जाएगा। शरीर मेरा है-यह मानसिक भ्रांति विसर्जित हो जाएगी।
यदि आप खड़ी मुद्रा में कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो सीधे खड़े हो जाइए। दोनों हाथों को घुटनों की ओर लटकाकर उन्हें ढीला छोड़ दीजिए। पैरों को समरेखा में रखिए और दोनों पंजों में चार अंगुल का अंतर रखिए। शेष सारे अंगों को स्थिर रखिए और शिथिल कीजिए। किसी भी अंग में तनाव मत रखिए।
यदि आप सोयी मुद्रा में कायोत्सर्ग करना चाहते हैं तो सीधे लेट जाइए। सिर से लेकर पैर तक के अवयवों को पहले तानिए, फिर क्रमशः उन्हें शिथिल कीजिए। हाथों और पैरों को परस्पर सटाए हुए मत रखिए। श्वास-उच्छ्वास समभाव से किंतु लंबा लीजिए। मन को श्वास-उच्छ्वास में लगाकर एकाग्र या विचारशून्य हो जाइए।
मन को शांत व स्थिर करने के लिए शरीर को शिथिल करना बहुत आवश्यक है। प्रयत्न से चंचलता बढ़ती है। स्थिरता अप्रयत्न से आती है। शरीर उतना शिथिल होना चाहिए जितना किया जा सके। वह प्रतिदिन आधा घंटा शिथिल हो सके तो मन अपने आप शांत होने लगता है। शिथिलीकरण के समय मन पूरा खाली रहे, कोई चिंतन न हो, जप भी न हो। यह न हो सके तो ¬, अर्हम् जैसे किसी शब्द का ऐसा प्रवाह हो कि बीच में कोई दूसरा विकल्प न आए। श्वास की गिनती करने से यह स्थिति सहज ही बन जाती है।
कायोत्सर्ग के प्रारंभ में इन संकल्पों को दोहराइए-
(1) शरीर शिथिल हो रहा है। (2) श्वास शिथिल हो रहा है। (3) स्थूल शरीर का विसर्जन हो रहा है। (4) तैजस शरीर प्रदीप्त हो रहा है। (5) कार्मण शरीर (वासना-शरीर) भिन्न हो रहा है। (6) ममत्व-विसर्जन हो रहा है। (7) मैं आत्मस्थ हो रहा हूँ।

कायोत्सर्ग का कालमान
कायोत्सर्ग की प्रक्रिया कष्टप्रद नहीं है। उससे शारीरिक विश्रांति और मानसिक शांति प्राप्त होती है। इसलिए वह चाहे जितने लंबे समय तक किया जा सकता है। कम से कम पंद्रह-बीच मिनट तो करना ही चाहिए। कायोत्सर्ग में मन को श्वास में लगाया जाता है, इसलिए उसका कालमान श्वास की गिनती से भी किया जा सकता है, जैसे सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग, दो सौ, तीन सौ, पाँच सौ, हजार श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग आदि-आदि।

कायोत्सर्ग का फल
कायोत्सर्ग का मुख्य फल है-आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना। उसका गौण फल है-मानसिक संतुलन, बौद्धिक विकास और शारीरिक स्वस्थता। मानसिक स्वस्थता, स्नायु-तनाव व कफ से उत्पन्न रोगों के लिए यह अमूल्य रसायन है।
आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग के पाँच फल बताए हैं-
(1) दैहिक जड़ता की शुद्धि-श्लेष्म आदि के द्वारा देह में जड़ता आती है। कायोत्सर्ग से श्लेष्म आदि के दोष मिट जाते हैं। अतः उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है।
(2) बौद्धिक जड़ता की शुद्धि-कायोत्सर्ग में चित्त एकाग्र होता है। उससे बौद्धिक जड़ता नष्ट हो
जाती है।
(3) सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दुःख सहने की शक्ति प्राप्त होती है।
(4) शुद्ध भावना का अभ्यास होता है।
(5) ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है।

बैठकर किए जाने वाले आसन
गोदोहिका
विधि-घुटनों को ऊँचा रखकर पंजों के बल पर बैठ जाइए। दोनों हाथों को दोनों ऊरुओं (साथलों) पर टिका दीजिए। यह गाय को दोहने की मुद्रा है, इसलिए इसका नाम गोदोहिका है।
समय-दीर्घकाल।
फल-कामवाहिनी नाड़ियों पर दबाव पड़ने के कारण यह ब्रह्मचर्य में सहायक होता है।
भगवान् महावीर इस आसन में ध्यान किया करते थे।
उत्कटुकासन
विधि-दोनों पैरों को भूमि पर टिका दीजिए और दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए जमीन पर बैठ जाइए।
समय-दीर्घकाल।
फल-(1) ब्रह्मचर्य में सहायक। (2) इसमें बैठे-बैठे पवनमुक्तासन की क्रिया हो जाती है, इसलिए यह वातरोग में भी लाभ पहुँचाता है।
समपादपुता
विधि-दोनों पैरों और पुतों को समरेखा में भूमि से सटाकर बैठ जाइए।
समय-दीर्घकाल।
फल-(1) ब्रह्मचर्य में सहायक। (2) वातरोग में लाभकारी।
गोनिषद्यिका
विधि-बाएँ पैर की एड़ी को ऊरु से सटाकर बैठ जाइए और दायें पैर को उससे कुछ नीचे रखकर उसे मोड़ते हुए पीछे की ओर ले जाइए। दूसरी आवृत्ति में दायें पैर की एड़ी को ऊरु से सटाकर बैठ जाइए और बायें पैर को उससे कुछ नीचे रखकर उसे मोड़ते हुए पीछे की ओर ले जाइए। यह गाय के बैठने का आसन है, इसलिए इसे गोनिषद्यिका कहा जाता है।
समय-दीर्घकाल।
फल-ब्रह्मचर्य में सहायक।
हस्तिशुण्डिका
विधि-पुतों के सहारे बैठकर क्रमशः एक-एक पैर को ऊपर उठाकर अधर में रखिए।
समय-एक मिनट से पाँच मिनट तक।
फल-(1) कटिभाग से नीचे के अवयवों में शक्ति का संचार होता है। (2) वीर्य-दोष नष्ट होते हैं।
कुछ योगाचार्य इसे खड़ा होकर किया जाने वाला आसन मानते हैं। उसकी प्रक्रिया यह है।
विधि-सीधे खड़े रहिए। सिर को घुटनों की ओर नीचे ले जाइए। दोनों हाथ जोड़कर हाथी की सूंड की भाँति दोनों पैरों के बीच में जितना ले जा सकें, ले जाएँ।
समय-एक से पाँच मिनट तक।
फल-पेट, पीठ, छाती, ग्रीवा और पैरों के विकार दूर होते हैं।
पद्मासन
विधि-पहले बायें पैर को दायें ऊरु और जंघा की संधि पर और दायें पैर को बायें ऊरु और जंघा की संधि पर रखिए। फिर दूसरी विधि के अनुसार पहले दायां पैर और फिर बायां पैर उसी पद्धति से रखिए। बायीं हथेली पर दायीं हथेली रखकर उन्हें नाभि के नीचे रखिए। इस स्थिति में बैठने पर पृष्ठ-रज्जु और गर्दन अपने आप सीधे हो जाते हैं। आँखों को मुंदी हुई या अधमुंदी हुई रखिए।
समय-अभ्यास करते-करते इसे तीन घंटे तक ले जाइए। यह उससे भी अधिक समय तक किया जा सकता है किंतु तीन घंटे का अभ्यास कर लेने पर यह सध जाता है।
फल-(1) यह मुख्यतः ध्यानासन है। इससे शारीरिक धातुएँ सम होती हैं, इसलिए यह मन की एकाग्रता में सहायक बनता है। (2) जंघा, ऊरु आदि के स्नायु सशक्त होते हैं। (3) इंद्रिय-विजय में सहायता मिलती है।

(क्रमशः)