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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह

(42) यत् सम्यक् तत् भवेन्मौनं, यन्मौनं सम्यगस्ति तत्।
मुनिः मौनं समादाय, धुनीयाच्च शरीरकम्।।

जो सम्यक्-यथार्थ है, वह मौन-श्रामण्य है और जो मौन है, वह सम्यक् है। मुनि मौन को स्वीकार कर कर्मशरीर को प्रकंपित करे, शरीर-मुक्त बने।

मुनि का कर्म मौन है। वह आत्मशुद्धिमूलक होने से सम्यक् है। एक कारण है और दूसरा कार्य। कार्य और कारण के अभेद दर्शन से सम्यक् को मौन और मौन को सम्यक् कहा है। मुनि का कर्म इसलिए सम्यक् है कि उसमें राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि का उपशम या क्षय होता है। मौन धर्म की समुपासना का फल है-स्थूल और सूक्ष्म शरीर से मुक्त होना। सूक्ष्म शरीर का जब अंत हो जाता है, तब भवचक्र रुक जाता है। समस्त सत् और असत् इच्छाओं से सर्वथा आत्मा विलग हो जाती है। इच्छाओं का अंत ही जन्म का अंत है।
‘सत्य मौन में घटित होता है’-यह समस्त ऋषियों का अनुभूत स्वर है और यह भी अनुभूत वाणी है कि सत्यवान् व्यक्ति मौन को उपलब्ध हो जाता है। इस दृष्टि से मौन और सत्य दोनों परस्पराश्रित हैं। एक-दूसरे के अभिन्न मित्र हैं। सम्यक् का अर्थ है-सत्य। सत्य यानी अस्तित्व की अनुभूति का ज्ञान। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-‘साधक बाह्य वचन-व्यवसाय का विसर्जन कर अंतरंग में होने वाले वाक्-प्रपंच का भी विसर्जन करे। परमात्म-प्रदीप को प्रकट करने की यह संक्षिप्त योगविधि है।’ वाक्जाल से मुक्त होना साधक के लिए अत्यंत अपेक्षित है। अन्यथा उसका समग्र शक्ति-प्रवाह व्यर्थ अंतर्वाणी और बाह्यवाणी के व्यापार में व्यय हो जाता है। मौन केवल शारीरिक तनाव की मुक्ति के लिए नहीं है, यह उसका क्षुद्रतम उपयोग है। उसकी वास्तविक उपादेयता है-चैतन्य का साक्षात्कार। जहाँ स्पंदन शांत हो जाते हैं, उस क्षण में हम स्वयं के भीतर होते हैं। मौन उसी चैतन्य की अनुभूति के लिए है। उसके अनेक भेद हैं। अंतर्मौन तक पहुँचने की ये प्राथमिक सीढ़ियाँ हैं। यथार्थ मौन वही है जहाँ साधक की अंतर्वाणी मुखरित हो जाती है और बाह्य सर्वथा शांत। मौन के क्षणों में फिर सत्य-अस्तित्व बोलता है, वह नहीं। उसका अपना ‘मैं’ ‘अहं’ मिट जाता है। वह उसी परम सत्य की एक कड़ी बन जाता है। मौन-साधकों के लिए अंतर्मौन का अभ्यास उपादेय है। अन्यथा जहाँ उन्हें पहुँचना है वहाँ पहुँच पाना असंभव है।
अंतर्मौन का अर्थ है-विचार-नियमन तथा विचार-शून्यता। विचारों के निग्रह के लिए आपको विचारों के प्रति जागरूक या साक्षी होना होगा। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा। विचारों का सिलसिला टूटता चला जाएगा। एक विचार से दूसरे विचार के उत्पन्न होने के मध्य दूरी का अनुभव होगा और इसी से शैनः-शनैः आप शून्य में प्रवेश कर जाएँगे। विचार-नियमन का इससे अधिक सरल और कारगर उपाय नहीं है। यह स्पष्ट है कि विचारों का नियंत्रण दुरूह है, किंतु साधक के आत्म-बल, दृढ़ भावना, श्रद्धा और सतत अभ्यास के सक्षम उसकी दुरूहता स्वयं सरलता में परिणत होती चली जाती है। साधक केवल जो जैसा आता है उसे उसी रूप में शांत-समभाव से देखता रहे, न विचारों को लाने का प्रयास करे और न उन्हें हटाने का। बस, वह तो उनके प्रति जागृत रहे।
(क्रमशः)