आध्यात्मिक वैज्ञानिक संत थे मुनि महेंद्र कुमारजी

आध्यात्मिक वैज्ञानिक संत थे मुनि महेंद्र कुमारजी

मुनि सिद्धप्रज्ञ

आचार्यश्री तुलसी का एक सपना था कि ऐसा व्यक्तित्व तैयार हो, जिसमें अध्यात्म का विवेक एवं विज्ञान की शक्ति हो। क्योंकि कोरा अध्यात्म दूसरों का भला नहीं कर सकता तो कोरा विज्ञान खतरनाक होता है। अर्थात् एक ही व्यक्ति में दोनों तत्त्व होना ही आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण हो। मैंने देखा और बहुत ही निकटता से देखा कि मुनि महेंद्रकुमार जी स्वामी ने जहाँ एक ओर अध्यात्म का जीवन जागरूकता से जीया। वैज्ञानिक संत होते हुए भी साधुचर्या के प्रति गहन आस्था एवं जागरूकता थी, फिर चाहे प्रसंग प्रतिक्रमण का हो या प्रतिलेखन का, आहार का हो या विहार का, प्रवचन का हो या वचन का, योग का हो या प्रयोग का, ज्ञान का हो या अवधान का, शयन का हो या भ्रमण का, सुबह हो या शाम, दिन हो या रात साधुचर्या के प्रति पूर्ण सजग थे। मैंने देखा इतने खुले विचार के संत होते हुए भी प्रतिक्रमण बहुत तन्मयता से करते थे। प्रतिक्रमण के दौरान कोई बात करता था, वंदना करता तो वे उसकी उपेक्षा कर देते थे। भावक्रिया के साथ प्रतिक्रमण आदि साधुचर्या में तल्लीन थे।
वैज्ञानिक संत: मुनिश्री के पिता श्री जेठालालजी जवेरी ने प्रेक्षाध्यान को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया था तो मुनिश्री ने जैन-दर्शन को विज्ञान के साथ तुलनात्मक अध्ययन कर तेरापंथ में एक विज्ञान की नई विधा को जन्म दिया। मुनिश्री ने दीक्षा के पूर्व ही बीएससी का अध्ययन प्राप्त कर लिया था। मुनिश्री संघ में ऐसे पहले संत थे जिन्होंने दीक्षित होने के पहले बीएससी की डिग्री प्राप्त कर ली थी। एक और वे विज्ञान के शोधकर्ता थे तो दूसरी ओर आगमों का इतना गहन अध्ययन कर तेरापंथ को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया था। मुनिश्री की प्रेरणा एवं प्रयत्न से सैकड़ों साधु-साध्वी, समण-समणी, साधक-साधिकाओं ने अध्यात्म का जीवन जीते हुए विज्ञान का भी यथासंभव अध्ययन एवं अध्यापन किया। शरीर विज्ञान, जैन दर्शन और विज्ञान, शीर्ष पहेलिका, न्यूरो साइंस ऑफ कर्मा, विद्युत सचित या अचित? आदि पुस्तक उनकी वैज्ञानिक मस्तिष्क की उपज की देन थी। उनके वैज्ञानिक विचारधारा से प्रभावित होकर साधु समाज उन्हें वैज्ञानिक संत की उपमा दिया करते थे और बातचीत में कहते थे ये हैं आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व।
प्रेक्षा प्राध्यापक: प्राध्यापक को अंग्रेजी में प्रोफेसर कहते हैं। प्रो0 मुनिश्री ने अपना पूरा जीवन अध्ययन एवं अध्यापन में लगाया। उन्होंने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में अपनी अर्हनीश भूमिका निभाई। मुझे भी प्रेक्षाध्यान को अंग्रेजी भाषा में कराने का अभ्यास कराया। सन् 1988 में आचार्य तुलसी का चौमासा जब डूंगरगढ़ था उस समय जीवन विज्ञान भवन में मुझे और समण स्थितप्रज्ञजी व श्रुतप्रज्ञजी मेरे साथ थे हम तीनों को अंग्रेजी भाषा में प्रेक्षाध्यान के प्रयोग कराए तथा तेरापंथ दर्शन आदि को अंग्रेजी भाषा में कैसे प्रस्तुत करें, इसका अच्छा ज्ञान कराया। मुनिश्री ने उस समय हमारे ऊपर काफी श्रम परिश्रम करके हमें विदेश में प्रचार-प्रसार करने के लिए तैयार किया। मुनिप्रवर का यह उपकार हम कभी विस्मृत नहीं कर सकते। सन् 1989 में लाडनूं चौमासा में योगक्षेम वर्ष की आयोजना की गई। उस आयोजन को सफल एवं सुफल बनाने में मुनिश्री का बहुत योगदान रहा। मुनिश्री के श्रम और कार्य से प्रभावित होकर आचार्य तुलसी ने मुनिश्री को प्रेक्षा प्राध्यापक संबोधन प्रदान किया।
आगम मनीषी: मुनि महेंद्रकुमारजी ने आचार्य तुलसी से सुजानगढ़ में मुनि दीक्षा लेते ही अनेकों विषयों का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। मुनिश्री ने अपना आधे से अधिक जीवन जैन आगमों का अध्ययन, अध्यापन, संपादन, अनुवाद आदि में बिताया। उन्होंने अनेकों आगमों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करके जैन शासन की अभूतपूर्व प्रभावना की। भगवती जैन विशल और गूढ़ सूत्र का अनुवाद करना बहुत दुर्लभ काम था। अब तक भगवती के 6 भागों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित कराकर एक महान काम किया। मुनिश्री ने आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञजी एवं आचार्य महाश्रमण जैसे देव दुर्लभ महान आचार्यों के शासनकाल में आगमों का विशेष कार्य किया। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने 2004 के जलगाँव मर्यादा महोत्सव पर मुनिश्री को आगम मनीषी संबोधन प्रदान किया। सचमुच तेरापंथ ही नहीं संपूर्ण जैन संप्रदाय मुनिश्री के आगम के कार्य को सदा स्मरण रखेगा। सचमुच वे आगम मनीषी संत थे। आगम का कार्य करके उन्होंने तीनों आचार्यों की बहुत अच्छी कृपा प्राप्त की।
ज्ञान की पराकाष्ठा: मुनिश्री अनेक देशी तथा विदेशी भाषाओं के जानकार थे। जब भी आचार्यों की पावन सन्निधि में अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस, सेमिनार या शिविर होते थे सब मुनिश्री गुरुओं की वाणी का अंग्रेजी भाषा में तत्काल बहुत अच्छे एवं प्रभावी ढंग से अनुवाद करते थे तो विद्वान लोग उनकी बातों को सुनकर बहुत प्रसन्न व प्रभावित होते थे। अंग्रेजी आदि अनेकों भाषाओं के बहुत अच्छे जानकार होने से उन्होंने आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञजी व आचार्यश्री महाश्रमण जी की अनेकों पुस्तकों का, ग्रंथों का, आगमों का, भाष्यों का, अंग्रेजी व गुजराती भाषाओं में अनुवाद कर तेरापंथ में एक अमूल्य धरोहर प्रदान की थी। मुनिश्री स्वाध्यायप्रिय एवं एक प्रभावी प्रवचनकार भी थे। वे एक उच्च कोटि के मूर्धन्य साहित्यकार भी थे।
प्रोफेसर संत: आचार्यश्री तुलसी का पूरा जीवन बहुआयामी जीवन था। उनका एक सपना थाµजैन विश्व भारती। विश्व भारती समाज की कामधेनु होने से अनेकों लोगों को वहाँ सहज ही रोजगार एवं सेवा देने का मौका मिलता था। आचार्यश्री तुलसी ने अपने कर्तृत्व व्यक्तित्व एवं वक्तव्य से जैन विश्व भारती में विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह संपूर्ण जैन इतिहास में पहली दुर्लभ घटना थी जब वहाँ जैन विश्व भारती मान्य विश्वविद्यालय को भारत सरकार से मान्यता प्राप्त हुई। आचार्यश्री तुलसी के इस दिव्य स्वप्न को साकार कराने में मुनिश्री ने भागीरथ प्रयत्न किया था। जहाँ एक ओर मुनिश्री विज्ञान के शोधकर्ता थे तो वहीं दूसरी ओर दर्शन एवं अध्यात्म के कुशल पारखी भी थे। उन्होंने अपनी ज्ञान चेतना, दर्शन एवं चरित्र की आराधना कर सर्वांगीण विकास किया था। जैविभा यूनिवर्सिटी ने मुनिश्री को मानद प्रोफेसर की उपाधि से नवाजा था। मुनिप्रवर का योगदान विश्वविद्यालय परिवार कभी विस्मृत नहीं कर सकता। उन्होंने विश्व भारती में रहकर वर्षों तक अध्ययन एवं अध्यापन किया।
बहुश्रुत संत: मुनि महेंद्रकुमारजी स्वामी ने छोटी उम्र में मुनि दीक्षा लेकर गहन अध्ययन करना शुरू कर दिया था। वे अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत, मराठी, गुजराती, फ्रेंच, इटालियन आदि अनेकों भाषाओं के जानकार थे। भाषा पर, उच्चारण पर अच्छा अधिकार होने से दलाईलामा, राष्ट्रपति डॉ0 कलाम, डॉ0 नत्रमल टाटिया, डॉ0 दयानंद भार्गव, दूरदर्शन के निर्देशक मधुकर लेले अनेक वाइस चांसलर, डॉक्टर, प्रोफेसर वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ रशियन, जापानी, अमेरिका आदि देशों के लोग आदि अनेक प्रबुद्ध वर्गों के विशिष्टजन तेरापंथ धर्मसंघ के आयामों से तहेदिलों से जुड़ गए थे। अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक मुनिश्री अनेक योग्यता से संपन्न थे। उनकी योग्यता का अंकन एवं मूल्यांकन करते हुए सन् 2012 में राजलदेसर मर्यादा महोत्सव पर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने उन्हें बहुश्रुत परिषद का सदस्य बनाया। फिर सन् 2020 में मुनिश्री को बहुश्रुत परिषद का संयोजक मनोनीत किया था। मुनिश्री पिछले 9 सालों से मुंबई में प्रवासित थे। जब उन्हें इस बात की जानकारी मिली कि आचार्यप्रवर औरंगाबाद पधारेंगे तो मुनिश्री ने आचार्यप्रवर से अनुज्ञा प्राप्त कर मुंबई से विहार कर पुना तक पहुँच गए पर दुर्भाग्य से कोरोना काल होने से मुनिश्री पुना से वापस मुंबई पधार गए।
मुंबई में दीर्घ प्रवास का कीर्तिमान बनाया: सन् 2015 में स्वास्थ्य की दृष्टि से मुनिश्री को आचार्यप्रवर अपने 5 सहयोगी संतों के साथ में मुंबई के लिए अनापत्ति स्वीकृति प्रदान की। मुंबई को लगातार 9 साल तक प्रवास करने वाले मुनिश्री पहले संत थे। मुनिश्री ने अपनी प्रज्ञा एवं परिश्रम से मुंबई में एक ऐसा वातावरण बनाया कि आचार्यप्रवर ने इस वर्ष 23 का चातुर्मास मुंबई घोषित कर दिया। जब गुरुदेव ने अपना चौमासा फरमाया तब से मुनिश्री गुरुदेव के चौमासे की तैयारी में लगे हुए थे। पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। मात्र 2 माह की ही देरी थी। मुनिश्री के मन में बड़े-बड़े ख्वाब थे, गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना और युगप्रधान के रूप में आचार्यप्रवर का वर्धापन करना पर नियति को कुछ और ही मान्य था।
मुझे भी साथ रहने का मौका मिला: सर्वप्रथम मुझे मुनिश्री की सन्निधि 1982 में लाडनूं में फिर योगक्षेम वर्ष में तुलसी अध्यात्म नीडम में लंबे समय तक फिर 98 में दिल्ली में। एक बार की बात है सन् 2008 में मुझे दो माह तक जैविभा, लाडनूं में मुनिश्री के सान्निध्य निर्देशन में रहने का मौका मिला। एक बार मुनिश्री के अचानक पेट में तकलीफ हो गई थी। तब मुनिश्री को मंगलम में भर्ती किया गया। मुझे भी समण श्रेणी में रहते हुए साथ में रहने का सहज ही मौका मिला था। जब आचार्य महाप्रज्ञजी को पता चला कि महेंद्र मुनि बीमार हो गए और हॉस्पिटल में हैं तो आचार्य का संदेश फैक्स आया कि ”मुझे पता चला कि महेंद्र मुनि अस्वस्थ हो गए तो मुझे सुनकर जोरदार झटका लगा।“ इससे बड़ी और क्या कृपा होगी आचार्यों की। सन् 2018 में मुझे मुनिश्री के साथ थाना मुंबई में रहने का अच्छा मौका मिला। उस समय श्रद्धानिष्ठ श्रावक विमल सोनी का बहुत अच्छा सहयोग रहा। मैंने देखा मुनिश्री कोई भी समस्या या विवाद उत्पन्न होता तो उसके समाधान का अच्छा तरीका निकाल लेते थे। मुझे मुनिश्री से बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ।
मैंने देखा तपस्वी संत मुनि अजित कुमारजी स्वामी ने इतने लंबे समय तक उनके पास जो छाया की तरह रहते थे बहुत चित्त समाधि में सहयोग किया। ये बहुत बड़ी बात है कि उनके सहयोगी मुनि अमृत कुमारजी, मुनि अभिजीत कुमारजी, मुनि जागृतकुमार जी व मुनि सिद्धकुमारजी ने लंबे समय तक रहकर एक ओर मुनिश्री की बहुत अच्छी सेवा की तो दूसरी ओर सभी संतों ने बहुत अच्छा विकास किया। मुनि जम्बूकुमारजी स्वामी जिन्होंने सेवा और अध्ययन के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया था सभी ने बहुत अच्छी सेवा की। सभी के प्रति बहुत-बहुत साधुवाद। एक शब्द में कहना चाहिए मुनि महेंद्रकुमार जी द्वितीय नहीं अद्वितीय संत थे।