एवं हवइ बहुस्सुए

एवं हवइ बहुस्सुए

एवं हवइ बहुस्सुए
मुनि अजित कुमार त मुनि जम्बू कुमार (मिंजूर) डॉ. मुनि अभिजीत कुमार मुनि जागृत कुमार त मनि सिद्ध कुमार ‘क्षेमंकर 

ज्ञान के निर्मल झरने में सदा प्रवाहित रहने वाले, निर्मल चरित्र संपन्न, विपुल ज्ञान के धारक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, श्रुत के पारगामी, अप्रमत्त योगी मुनि महेंद्रकुमारजी स्वामी ने अपने जीवन को सबके लिए प्रेरणास्पद एवं आलोक स्तंभ बना दिया। उनका उदात्त व्यक्तित्व ही कहता है एवं हवइ बहुस्सुए-ऐसे होते हैं बहुश्रुत।
प्रारंभिक जीवन
जैन श्वेतांबर स्थानकवासी 8 कोटी नानी पक्ष के झवेरी परिवार में आपका जन्म सन् 1937 मुंबई में हुआ। आपका पूरा परिवार बौद्धिक दृष्टि से उन्नत एवं तत्त्वज्ञ था। सघन चर्चाओं के बाद शास्त्रीय एवं तार्किक सूझबूझ से आपके संसारपक्षीय पिताजी जेठाभाई झवेरी ने पूरे परिवार सहित जैन श्वेतांबर तेरापंथ की गुरु धारणा स्वीकार की। कॉलेज जीवन के दौरान ही मुनिश्री के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ। मुनिश्री ने 3 वर्ष तक कॉलेज की पढ़ाई और साथ में धार्मिक स्वाध्याय कंठस्थीकरण एवं मुख लुंचन का अभ्यास किया। कॉलेज मध्य में अवकाश (break period) मिलने पर संतों के सान्निध्य में पहुँचकर समय का सदुपयोग करते थे। इसी दौरान मुनिश्री ने हस्तलिखित प्रति से जैन सिद्धांतदीपिका कंठीकरण तथा हृदयंगम किया। 3 वर्ष के अपनी वैरागी अवस्था में मुनिश्री मुंबई में रहते हुए भी चप्पल-जूते का प्रयोग नहीं करते थे। जब भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को पता चला कि मुंबई का एक ग्रेजुएट लड़का संन्यास लेने जा रहा है तो उन्हें अपना निर्णय बदलने के लिए उपराष्ट्रपति ने साक्षात्कार हेतु बुलाया। मुनिश्री के उत्तर सुन वे इतने संतुष्ट हुए कि उन्होंने जेठा भाई को कहा कि इसे जरूर दीक्षा लेनी चाहिए, इसकी दीक्षा पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी होगी। मुनि महेंद्रकुमार जी स्वामी B.Sc (honours) भौतिकी में स्वर्ण पदक प्राप्त कर 20 वर्ष की युवा अवस्था में धर्मसंघ के प्रथम ग्रेजुएट के रूप में आचार्यश्री तुलसी के करकमलों से सुजानगढ़ (राजस्थान) में दीक्षित हुए।
कार्यक्षेत्र
मुनिश्री ने हजारों किलोमीटर की पदयात्राएँ करते हुए विभिन्न राज्यों, अंचलों का स्पर्श किया। अपने प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान, अणुव्रत, अहिंसा प्रशिक्षण, जैन दर्शन एवं विज्ञान इत्यादि आयामों को व्यापकता दी। धर्मसंघ की प्रभावना हेतु तेरापंथ के पूज्य आचार्यों ने दिल्ली में मुनिश्री के 18 चातुर्मास करवाए। जैन विश्व भारती एवं जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट के विकास के लिए भी मुनिश्री के लाडनूं में 18 चातुर्मास करवाए गए। मुनिश्री ने अपनी जन्मभूमि मुंबई में बहुत वर्ष पहले एक चातुर्मास किया और जीवन के अंतिम 8 चातुर्मास भी मुंबई में किए।
सन् 2010 में ध्यान, अनुप्रेक्षा के प्रभावों के वैज्ञानिक अध्ययन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में जैन दर्शन के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में आपको निमंत्रित किया गया। सम्मेलन में विश्व स्तरीय वैज्ञानिक एवं विद्वान आपके वक्तव्य एवं व्यक्तित्व से अभिभूत हुए। श्री दलाई लामा ने मुनिश्री की प्रशंसा में कहा-‘What a wonderful presentation.’ वर्ष 2016 में मुनिश्री की आध्यात्मिक मार्गदर्शन में IIT Bombay में जैन दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान पर अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई। लगभग 15 देशों के वैज्ञानिकों ने इसमें भाग लिया। इसकी विश्व भर में काफी गूंज हुई।
सन् 2017 थाने में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन इसरो के वैज्ञानिक डॉ0 नरेंद्र भंडारी द्वारा अध्यात्म एवं विज्ञान पर करीब 7 घंटे लंबा साक्षात्कार रूपी संवाद चला जिसमें उन्होंने करीब 40 प्रश्न पूछे जिनका मुनिश्री ने वैज्ञानिक एवं आगमिक दृष्टि से समाधान दिया। यह संवाद प्रकाशित होने पर सुधी जनों के लिए आकर्षण का केंद्र बना।
सन् 2021 में फ्लोरिडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में मुनिश्री का प्रभावशाली वक्तव्य कीनोट एड्रेस हुआ जिसका करीब 10,000 बुद्धिजीवियों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
साहित्य सर्जक
अध्यात्म और विज्ञान, गणित, प्रेक्षाध्यान, न्यूरोसाइंस, परमाणु विज्ञान, विद्युत और जैन तत्त्वज्ञान पर आपने अनेक गहन ज्ञान से परिपूर्ण पुस्तकों का लेखन किया, जो विद्वत जनों के स्मृतिपटल पर अपनी अमिट छाप रखती हैं।
कुशल अनुवादक
करीब 22 पुस्तकों का आपने अनुवाद कार्य किया। जब-जब डॉ0 एपीजे अब्दुल कलाम आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के दर्शनार्थ आते तब उनके संवाद के सेतु मुनिप्रवर बनते थे। अब्दुल कलाम ने उन्हें इंटलेक्चुअल मीडियम कहा और उनके त्वरित अनुवादन कौशल की प्रवचन सभा में प्रशंसा भी की।
समीक्षक-संपादक
मुनिश्री को विभिन्न ग्रंथों को संपादित करने का गौरव प्राप्त हुआ। पुस्तकों आदि में प्रकाशित लेख हो या किसी की वाचिक प्रस्तुति वे उसकी तटस्थ समीक्षा करते थे। मौलिक गलती होने पर उसका खंडन मंडन भी निर्भीकता से किया करते थे।
प्रेक्षा प्राध्यापक
प्रेक्षाध्यान की दार्शनिक एवं वैज्ञानिक पृष्ठभूमि में आचार्य महाप्रज्ञ जी के निर्देशन में मुनिश्री का भी काफी श्रम रहा तथा वैज्ञानिक धरातल से जोड़कर गहन रिसर्च किया, इसलिए आचार्यश्री तुलसी ने 9 अक्टूबर, 1989 लाडनूं में आपको प्रेक्षा प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया।
आगम मनीषी
प्रायः प्रारंभ से ही मुनिश्री का जीवन आगमों के अध्ययन, अध्यापन, शोध, अनुवाद, मनन, समीक्षा आदि में निरंतर संलग्न रहे। इसी का मूल्यांकन करते हुए आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने 2009 लाडनूं में आपको आगम मनीषी अलंकरण से अलंकृत किया।
बहुश्रुत
धर्मसंघ के बहुश्रुत परिषद के आप संयोजक थे। बहुविध विधाओं में विज्ञ आपश्री विज्ञान, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, ध्यान, इतिहास, तत्त्वज्ञान, भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन, आगम आदि में निष्णात थे। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने 2011, राजलदेसर में आपको बहुश्रुत परिषद के सदस्य बनाया एवं तत्पश्चात 2020, हुबली में बहुश्रुत परिषद के संयोजक के रूप में मनोनीत किया।
बहुभाषाविद्
करीब 17 भाषाओं पर आपने अधिकृत ज्ञान प्राप्त किया। गुजराती होते हुए भी आपकी राजस्थानी भाषा इतनी सधी हुई थी कि लोग अनुमान भी नहीं लगा पाते कि मुनिश्री की मातृभाषा क्या है। पाली, संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन भाषाएँ, हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषाओं के साथ ही जर्मन आदि विदेशी भाषाओं के भी मुनिश्री ज्ञाता थे।
शतावधानी
अवधान एक प्राचीन विद्या है जिसमें स्मरण शक्ति एवं गणित का समायोजन हैं। जनता के द्वारा बताई गई चीजों (जैसे अंक, विदेशी भाषा, श्लोक, वस्तु, विश्व का शब्दकोश इत्यादि) एक बार में ही सुनकर याद कर लेना एवं उसी कार्यक्रम में अंत में उसी क्रम में सुनाना। इसी प्रकार बड़ी संख्याओं के साथ मानसिक गणित करना जिसमें कोई कागज एवं कलम का बिलकुल भी उपयोग नहीं होता है। इतनी चीजें याद रखने के बावजूद भी गणितीय प्रश्नों (जैसे वार शोधन, समानांतर जोड़, सर्वतोभद्र यंत्र, गुप्तांक शोधन, घात मूल, माला शोधन इत्यादि) का तुरंत उत्तर देना। यह प्रोग्राम धर्मसंघ की प्रभावना एवं लोगों को जोड़ने में खूब सहायक बना।
मुनि महेंद्रकुमार जी स्वामी भी इस अनुपम, अलौकिक, विस्मयकारी विद्या के धनी थे। भारत के अनेक महत्त्वपूर्ण स्थानों पर एवं महत्त्वपूर्ण लोगों के बीच में उन्होंने ऐसे अवधान के कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी। उनमें से कुछ विशिष्ट कार्यक्रमों का उल्लेख इस प्रकार है-
1958 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, वाराणसी
1966 में गवर्नर संपूर्णानंद के समक्ष गवर्नर हाउस, जयपुर
1990 में आईआईटी दिल्ली
2005 में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस, राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली इत्यादि।
सुधीजनों के उद्गार
उदयपुर 2007 में युगप्रधान आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने फरमाया-‘हमें धर्मसंघ में अनेक महेंद्र मुनि चाहिए जो अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान, आगम एवं अंग्रेजी सभी का अधिकृत ज्ञान रखते हों।’
सरदारशहर, 2010 में मुनिश्री की पुस्तक ‘द एनिग्मा ऑफ द यूनिवर्स’ के विमोचन के अवसर पर युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया-‘एक और 50 पुस्तकें और दूसरी ओर यह पुस्तक रखी जाए तो यह भारी होगी।’
इसी पुस्तक के विमोचन पर दिल्ली में डॉ0 एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा-”मैं देर रात 3 बजे तक यह पुस्तक पढ़ रहा था। मुझे लगा कि मुनिश्री न केवल एक संत बल्कि उच्च कोटि के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक भी हैं। विश्व की पहेली सुलझाने में लगे नोबेल लॉरेट को मुनिश्री का मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए।“
आचार्यों की वचनसिद्धि
मुनिश्री के लिए समय-समय पर तीनों युगप्रधान आचार्यों (आचार्यश्री तुलसी, आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी और आचार्यश्री महाश्रमण जी) ने कृपापूर्ण अंतःकरण से जो आशीर्वाद प्रदान किया, वे शब्द मुनिश्री के लिए चमत्कारिक सिद्ध हुए। तीन संस्मरण उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत कर
रहे हैं-
(1) मुनिश्री के संयम पर्याय के 25 वर्ष की परिसंपननता पर जो आचार्यश्री तुलसी ने विद्याभूमि, राणावास में 29 अक्टूबर, 1982 को आशीर्वाद प्रदान किया वह इस प्रकार है-
”मुनि महेंद्र जी! तुम्हें दीक्षित हुए 25 वर्ष हो गए पता ही नहीं चला। समय कितना गतिशील है। हमारे धर्मसंघ में तुम प्रथम ग्रेजुएट दीक्षित हुए। तुम्हारी दो विशेषताएँ हैं-अध्ययनशीलता और श्रमशीलता-प्रत्यक्ष और परोक्ष में एक जैसी है। स्वास्थ्य तुम्हारा यथेष्ट अनुकूल नहीं रहा फिर भी इन दो बातों में कोई क्षति नहीं आई। इसके साथ-साथ तुम्हारा समर्पण भाव भी विशिष्ट रहा।---तुम जीवन भर इसी प्रकार शासन की सेवा करते रहोगे। यह शुभाशीर्वाद देता हूँ।“
गुरुदेव के आशीर्वाद के अनुरूप ही मुनिश्री जीवन भर काम करते रहे।
(2) उदयपुर चातुर्मास में मुनिश्री के उम्र के 70 वर्ष की परिसंपन्नता पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने जो आशीर्वाद प्रदान किया वह इस प्रकार है-
”स्वस्थ रहो। सक्रिय रहो और आगे कम से कम 15 वर्ष तक संघ की सेवा अच्छी तरह करनी है।“
मुनिश्री ने उसके पश्चात् ठीक 15 वर्षों तक अपनी सेवाएँ दी। सभी 16वाँ वर्ष चल रहा था।
(3) छापर चातुर्मास में आचार्यश्री महाश्रमण जी का मुनिश्री के लिए चेंबूर चातुर्मास की संपन्नता के बाद जो निर्देश प्राप्त हुआ वह इस प्रकार है-
”---चातुर्मास की संपन्नता के बाद यथासंभवतया चेंबूर से विहार करके विलेपार्ले पधार जाएँ और यथासंभवतया विलेपार्ले को अपना मुख्यालय बनाकर रहें, जब तक कोई नया इंगित न मिले तब तक।“
मुनिश्री ने विलेपार्ले को ही अपना मुख्यालय बना लिया।
इस प्रकार से तीनों आचार्यों के वचनों का मुनिश्री के जीवन में चमत्कारिक प्रभाव रहा।
वे अंतिम क्षण
धर्मसंघ की प्रभावना का जब भी अवसर आता मुनिश्री अपनी अनुकूलता को गौण कर त्वरित उस ओर अभिमुख हो जाते थे। काल धर्म प्राप्त होने के 6 दिन पूर्व ही मुनिश्री ने मुनि अभिजीत एवं मुनि जागृत को भारत जैन महामंडल द्वारा आयोजित महावीर जयंती कार्यक्रम में भेजा। मुनिश्री का स्वास्थ्य उतार पर था, संत भी मुनिश्री के पास ही रहना चाहते थे, फिर भी मुनिश्री ने संतों को कार्यक्रम हेतु भेजा। मुनिश्री की कल्पना के अनुरूप कार्यक्रम बहुत ही संघ प्रभावी रहा। कार्यक्रम संपन्न कर अगले ही दिन दोनों संत 25 किलोमीटर का विहार कर मुनिश्री के सान्निध्य में पहुँच गए।
शरीर में असहनीय वेदना होते हुए भी मुनिश्री ने और असाधारण तितिक्षा का परिचय दिया। दृढ़ मनोबल ऐसा जिसके सामने डॉक्टर भी नतमस्तक थे। नानावटी हॉस्पिटल के गुर्दा एवं गुर्दा प्रत्यारोपण विभाग के अध्यक्ष डॉ0 जनित कोठारी ने कहा-”एक बार डायलिसिस चालू हो जाए तो उसे जीवन भर चालू रखना पड़ता है। उसमें रिवर्सल नहीं होता परंतु मुनिश्री हजारों में से एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने संकल्प बल से एक डायलिसिस होने के बावजूद भी उस पर विजय प्राप्त की और बिना डायलिसिस भी मुनिश्री का काम चला।“
अंतिम समय तक मुनिश्री की जो श्रमनिष्ठा रही वह उल्लेखनीय है। जितनी बार हॉस्पिटल में भर्ती किया जाता एक थैला तो आगम कार्य का अवश्य साथ होता। ठीक अप्रैल तक मुनिश्री प्रायः निरंतरता के साथ आगम संपादन के महायज्ञ में संलग्न रहे। मुनिश्री प्रायः जीवन भर सक्रिय ही रहे। मात्र सचेत अवस्था में अंतिम 2 दिन मुनिश्री परवश रहे। आहार आदि भी मुनि अजित कुमार जी स्वामी, मुनि सिद्ध कुमार जी अपने हाथों से करवाते। मुनिश्री को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता कि उनके कारण संतों को मेहनत पड़ रही है। 4 अप्रैल को शाम 6ः30 सिद्ध मुनि जब हॉस्पिटल से ठिकाने के लिए प्रस्थान कर रहे थे मुनिश्री ने आशीर्वाद देते हुए भावुक स्वरों में फरमाया-”सिद्धू! तुम्हें बहुत मेहनत डाल देते हैं।“
डेढ़ घंटे पश्चात् कार्डियक अरेस्ट हो गया जिसके बाद अंत तक मुनिश्री अचेत अवस्था में ही रहे। 6 अप्रैल को प्रातः हम पाँचों संतों ने (मुनि अजित कुमार, मुनि जम्बू कुमार (मिंजूर), डॉ0 मुनि अभिजीत कुमार, मुनि जागृत कुमार, मुनि सिद्ध कुमार ‘क्षेमंकर’), डॉ0 पीयूष जैन (पगारिया) से विचार-विमर्श कर मुनिश्री को नानावटी हॉस्पिटल से विलेपार्ले कल्याण मित्र बी0डी0 गोयल निवास में लाना निश्चित किया। अपराह्न में प्रवास स्थल पहुँचते ही 3ः06 पर मुनिश्री को समसमाचारी में सागरी संथारा पचखाया गया एवं 3ः23 पर मुनिश्री ने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर ऊर्ध्व लोक की ओर प्रस्थान किया।