अमृत के अक्षय निधान आचार्यश्री महाश्रमण

अमृत के अक्षय निधान आचार्यश्री महाश्रमण

आचार्यश्री महाश्रमण जी के संयम अमृत महोत्सव पर विशेष

एक बार विद्वत् परिषद् में एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि अमृत का वास कहाँ है? सारे विद्वान चिंतन-मनन करने लगे। एक विद्वान ने कहा-अमृत का वास समुद्र में है। जब समुद्र का मंथन हुआ था, तब अमृत-घट निकला था। दूसरे विद्वान् ने असहमति प्रकट करते हुए कहा कि समुद्र में अमृत नहीं हो सकता क्योंकि समुद्र तो पूरा ही खारा होता है। जहाँ अमृत होता है, वहाँ खारापन नहीं रह सकता, इसलिए मेरी दृष्टि में तो अमृत चंद्रमा में है, इसीलिए तो चंद्रमा को सुधाकर कहा जाता है। एक अन्य विद्वान् ने अपना मंतन्य प्रस्तुत करते हुए कहा-चंद्रमा में अमृत नहीं हो सकता। यह कहा जाता है कि जहाँ अमृत होता है, वहाँ हर चीज अमरता को प्राप्त होती है। चंद्रमा की कलाएँ बढ़ने के साथ घटती भी हैं। एक दिन पूनम का चाँद मावस का चंद्रमा बन जाता है। मेरी दृष्टि में तो अमृत चंद्रमा में नहीं सर्प की मणि में हैं।
दूसरे विद्वान् ने असहमति के साथ अपने मनोभाव प्रकट करते हुए कहा-सर्प की मणि में अमृत नहीं हो सकता क्योंकि कहा जाता है, जहाँ अमृत होता है, वहाँ जहर नहीं हो सकता। जबकि सर्प को तो विषधर ही कहा जाता है, अमृतधर नहीं। इसलिए सर्प की मणि में अमृत नहीं हो सकता। इस प्रकार विद्वानों के बीच लंबी चर्चा-परिचर्चा चलती रही। यदि उस संगोष्ठी में हम होते तो हमारा उत्तर होता कि अमृत का वास तो इस सदी के धवल भास्कर, जिनशासन के उज्ज्वल नक्षत्र, मानवता के मसीहा, तेरापंथ के परवरदिगार, अमृत-उत्सव के महानायक, अमृत-पुरुष आचार्य महाश्रमण जी के जीवन में है।
आचार्य महाश्रमण जी अमृत के महासागर हैं। धर्मग्रंथों में दो प्रकार के अमृत की चर्चा आती है। सूरामृत यानी स्वर्ग का अमृत, धरामृत यानी धरती का अमृत। आचार्य महाश्रमण जी इस धरती के अमृत हैं यानी धरामृत हैं। सूरामृत का पान करने वाले देवता दीर्घजीवी होते हैं। धरामृत का पान करने वाला भक्त दिव्यजीवी बनता है। दीर्घजीवी बनना कोई बड़ी बात नहीं किंतु दिव्यजीवी बनने वाला सदियों तक याद किया जाता है। तो आइए, जानें आचार्य महाश्रमण जी के जीवन में कितने प्रकार का अमृत है, जिसका पान करके भक्त आत्मानंद की अनुभूति करता है।

करुणामृत
आचार्यश्री महाश्रमण जी के हृदय में करुणामृत का निर्झर प्रवाहित हो रहा है। करुणामृत निर्झर में अवगाहन करने वाला आधि-व्याधि से मुक्त होकर परम समाधि का वरण करता है। आपश्री के हृदय सागर से बहने वाला करुणा का दरिया गण-गुलशन की हर डाली, शाखा, फल, फूल, पत्ते, जड़ को सिंचन देकर पल्लवित व पुष्पित कर रहा है। इतिहास में हम बुद्ध व महावीर की करुणा के इतिवृत्त पढ़ते हैं किंतु इस पंचम कलिकाल में हम परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी की करुणा में महावीर व बुद्ध की करुणा के दर्शन कर रहे हैं। प्रत्येक भक्त चाहता है कि आपश्री के करुणामृत का पान कर मुदित चित्र बन जाए।

स्नेहामृत
आचार्यश्री महाश्रमण जी के नयनों से नेह का अमृत बरसता है। आपश्री की सन्निधि में आने वाला हर व्यक्ति रोग-शोक मुक्त होकर निरोग हो जाता है, हर्षोत्फुल हो जाता है। वह आपश्री के नयन कमलों से नेहामृत का पान कर गहरी तृप्ति की अनुभूति करता है।

ज्ञानामृत
आपश्री के मस्तिष्क में ज्ञानामृत का अखूट खजाना भरा हुआ है। जितना बाँटों, बढ़ता ही जा रहा है। आपश्री से ज्ञानामृत का पान करके सुप्त चेतना में नव प्राणों का संचार हुआ है। अज्ञान-तमिस्रा को नष्ट कर आपने ज्ञान के आलोक से सृष्टि को आलोकित किया है। इतिहास सुकरात, अरस्तू, विवेकानंद आदि ज्ञानियों की ज्ञान-रश्मियों से उद्भाषित हो रहा है। तेरापंथ के इतिहास में भिक्षु व जय की मेधा का वर्णन पढ़ा है। आचार्य तुलसी व आचार्य महाप्रज्ञ जी की प्रज्ञा को देखा है, उन्होंने ज्ञान का अमृत जग को बाँटा। आज उन्हीं महापुरुषों के समकक्ष खड़े होकर आचार्यश्री महाश्रमण जी अपनी ज्ञान-ज्योति से धरणी-धाम को ज्योतिर्मय बना रहे हैं।

श्रम का अमृत
आचार्यश्री महाश्रमण जी के हाथों में श्रम का अमृत निवास करता है। वे श्रम देवता के पुजारी हैं। दिन में लगभग 16 घंटे श्रम देवता की पूजा करते हैं। कहते हैं जो व्यक्ति दिन में 8 घंटे काम करता है, उसका भाग्य 40 प्रतिशत साथ देता है। जो 10 घंटे काम करता है, उसका भाग्य 60 प्रतिशत साथ देता है, जो 12 घंटे काम में संलग्न रहता है, उसका 80 प्रतिशत भाग्य साथ देता है किंतु जो 16 घंटे काम करता है, उसका भाग्य 100 प्रतिशत साथ देता है, वो दुनिया में महाश्रमण या फिर मोदी कहलाता है।
आपश्री अपने हाथों में श्रम का हल लेकर संघ की धरती पर विकास के मोतियों की फसल निपजा रहे हैं। उन मोतियों की आभा से पूरा धर्मसंघ आभामंडित हो रहा है। आपश्री के हाथों से श्रम का अमृत-पान कर संघ का हर सदस्य श्रमजीवी बनें एवं प्रगति के प्रांशु शिखर पर आरोहण करें।

वात्सल्यमृत
आपश्री की जिह्वा पर वात्सल्यरूपी अमृत विराजमान है। आपश्री का श्रीमुख वात्सल्यरूपी अमृत का उद्गम स्थल है। यहीं से वात्सल्य की धाराएँ निकलकर जन-जन को वात्सल्यामृत से अभिस्नात कर रही है। आपश्री के श्रीमुख से वात्सल्य संभृत दो बोल सुनकर आगंतुक भक्त निहाल हो जाता है, उसके चेहरे की कांति तेजोदीप्त हो जाती है। वात्सल्यामृत का पान करने के लिए भक्त-भ्रमर आपके इर्द-गिर्द मँडराते रहते हैं। आप इस संघ के महापुष्प हो, जिसकी हर पंखुड़ी में वात्सल्य-रस भरा हुआ है, वह रस आपश्री की रसना द्वारा निसृत हो रहा है। चिरकाल तक आपका यह संघ आपश्री से वात्सल्यामृत का पान करता रहे।

निरहंकारिता का अमृत
आपश्री के सुकोमल पाँवों में निरहंकारिता के अमृत ने आश्रय ले रखा है। आपश्री के पाँवों ने केलवा से कन्याकुमारी, काशी से कोलकाता, काठमांडु, गंगाशहर से गोहाटी तक की यात्रा की है। आपश्री के सुदृढ़, सुकोमल कदमों ने 3 देश व 20 राज्यों की माटी का स्पर्श किया है। आपश्री के चरणों का स्पर्श पाकर वह माटी चंदन बनकर महक रही है। आपश्री के इन नन्हें कदमों ने लगभग 55 हजार किलोमीटर की पदयात्रा की किंतु आपश्री के पाँवों में तो निरहंकारिता का अमृत विराजमान है। कभी अहंकार के नाग ने फूफकार नहीं मारी कि मैंने इतनी धरती को मापा है। लगता है इतने कम वर्षों में इतनी लंबी यात्रा करने वाले आप ही प्रथम महापुरुष हैं, आपश्री का नाम वल्र्ड गिनीज बुक में दर्ज हो सकता है पर आपश्री तो निरहंकारी महापुरुष हैं।
आपश्री के चरणों में राष्ट्रपति, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री लगभग तेरह राज्यपाल, इक्कीस मुख्यमंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री अनेक केंद्रीय नेताओं ने आकर शीश झुकाया है। देश के शीर्षस्थ महानुभावों ने आपश्री से मार्गदर्शन प्राप्त किया। अहिंसा यात्रा में गाँवों के लोग, जैनेत्तर लोग, सभी आपश्री में भगवान का रूप देखते हैं। फिर भी आपश्री की निरहंकारिता के अमृत ने अहंकार को आपके ऊपर हावी नहीं होने दिया। पूज्यप्रवर आपश्री की निरहंकारिता वंदनीय, अभिनंदनीय, अर्चनीय, स्तुत्य है। आपश्री के चरणों से निरहंकारिता का अमृत-पान कर हमारे कदम भी लक्षित मंजिल का वरण करें।
अस्तु, आचार्य महाश्रमण जी के जीवन में ऋजुता का अमृत, मृदुता का अमृत, सहजता का अमृत, समता का अमृत, गंभीरता का अमृत, निस्पृहता का अमृत, साधना का अमृत, निर्लोभता का अमृत, संयम का अमृत, आचारनिष्ठा का अमृत, आगमवाणी का अमृत भरा हुआ है। आपश्री से उसका पान कर हर साधक अमरत्व की ओर प्रस्थान कर सकता है। ऐसा हमारे लिए काम्य है।
अमृत महोत्सव की अमृत-बेला में अमृत-पुरुष से यही वरदान चाहते हैं।
- गण-गुलशन की हर कली फूल बनकर मुस्कुराती रहे।
- गण-गुम्बज का हर दीप ज्ञान ज्योति से आलोकित होता रहे।
- संघ-समंदर की हर उर्मि शांत और समाधि-रस का पान करे।
- शासन-सरोवर का हर शतदल मर्यादा व अनुशासन की सौरभ से सुरभित रहे।
- गण-गगनमणि की हर प्रभा साधना के तेज से तेजस्वी बने।
- गण-व्योममंडल का हर तारा, ध्रुवतारे की तरह गण में स्थिर रहे!
- संघ-सुधाकर की हर कला अध्यात्म-कला में निपुण बने।
अमृत-पुरुष का अमृत उत्सव,
गण में आई नई बहार।
लो स्वीकारो हे गणमाली!
गण-कलियों का यह उपहार।।