अभिवंदना आचार्य मानत्तुंग महाश्रमण की

अभिवंदना आचार्य मानत्तुंग महाश्रमण की

परम पावन पूज्यप्रवर गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमण जी जैन धर्म तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्य हैं। वे एक धर्माचार्य हैं। जैन इतिहास में प्रभावक आचार्यों की शंृखला में एक आचार्य हुए हैं-आचार्य मानत्तुंग। भगवान आदिनाथ की स्तुति ‘भक्तामर स्तोत्र’ आचार्य मानत्तुंग की प्रसिद्ध एवं चमत्कारी रचना है। मानत्तुंग का एक अर्थ मान अर्थात् अहं से ऊपर उठना भी किया जा सकता है अर्थात् किया जाता है। अहं विलय के सिद्ध साधक को मानत्तुंग विशेषण से संबोधित किया जा सकता है। धर्म का मूल है-विनय। दशवैकालिक सूत्र में कहा है-‘एवं धम्मस्स विणओ मूलं---।’ गुरुदेव आचार्यश्री महाश्रमण जी के धर्म के मूल ‘विनय’ की सर्वोत्कृष्ट साधना सधी हुई है। वे विनय के सर्वोच्च शिखर पर आरोहण कर चुके हैं।
जैन आगमों में विनय का एक अर्थ है-आचार अर्थात चारित्र धर्म। विनय के सात प्रकारों में एक लोकोपचार विनय भी है जिसका अर्थ है-विनम्रता करना। गुरु अथवा बड़ों के सामने सिर झुकाना, हाथ जोड़ना, खड़े होना, आसन देना, सम्मुख जाना आदि क्रियाएँ इस विनय से जुड़ी हुई हैं।
विनय का प्रतिपक्षी तत्त्व है मान-अहंकार। जहाँ मान है, वहाँ विनय नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने कहा है-‘माणो विणयनासणो।’ मान विनय का नाश करने वाला होता है। मान पर विजय पाने वाला, मान से ऊपर उठने वाला व्यक्ति ही विनय के शिखर पर आरोहण कर सकता है। जिसने अपने आपको मान से उत्तुंग यानी ऊँचा उठा लिया है, जिसने अहं विहाय की साधना की है वही व्यक्ति चारित्र धर्म या विनय धर्म को प्राप्त कर सकता है। मान को मारे बिना न ज्ञान-दर्शनादि आचार धर्म की शिक्षा प्राप्त हो सकती है और न ही किसी का अभिवादन, सत्कार या सम्मान रूप उपचार विनय संभव है। जिसने अपने ईगो को डाउन टू अर्थ कर लिया है वही दूसरों को अभिवादित एवं सम्मानित कर सकता है फिर चाहे सामने वाला उससे अवस्था में छोटा हो या बड़ा एवं पदस्य हो या उच्च पदस्थ, स्त्री हो या पुरुष। आचार्यश्री महाश्रमण जी का एक ओर आचार्य धर्म अति विशिष्ट है तो दूसरी ओर वे लोकोपचार विनय के भी उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
पूज्य गुरुदेव अपने रत्नाधिक संतों को जिस रूप में बहुमान देते हैं, उनका विनय करते हैं, देखकर, सुनकर व्यक्ति का हृदय आह्लाद से भर जाता है। एक आचार्य होकर भी वे अपने उपकारी दीक्षा प्रदाता मुनि ‘शासन स्तंभ’ मंत्री मुनिप्रवर के श्रीचरणों में जिस प्रकार लोटकर वंदना करते, देखने वाला गद्गद हुए बिना नहीं रहता। संघ के सर्वोच्च पद पर आसीन सर्वेसर्वा गुरुदेव समय-समय पर अपने एवं पदस्य व्यक्तियों का जो सम्मान बढ़ाते हैं, उनकी प्रमोद भावना भाते हैं देखकर द्रष्टा के हृदय में आनंद की लहरें उमड़ पड़ती हैं फिर चाहे वह व्यक्ति बहुश्रुत पद पर आसीन कोई अन्य साधु-साध्वी हो या साध्वीवर्या जी। मुख्य मुनिप्रवर हो या साध्वीप्रमुखाश्री जी।
गुरुदेवश्री ने अपने विनय को शिखर-ऊँचाई पर ले जाकर संघ में साध्वीप्रमुखा पद पर आसीन शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी को जो बहुमान दिया, वह इतिहास की एक विरल एवं आश्चर्यकारी घटना बन गई। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के सम्मान में हाथ जोड़कर, अभिवादन करना, खड़े होना, कुछ कदम सम्मुख पधारना, रूप विनय का प्रयोग तो गुरुदेव कई वर्षों से करवा ही रहे थे, पर गत वर्ष 6 मार्च को दिल्ली के एक्शन बालाजी हाॅस्पिटल में पूज्य गुरुदेव ने जिस रूप में नीचे विराजकर, घुटने टिकाकर शासनमाता को वंदना की, देखने वालों के दिलों में गौरव एवं आँखों में हर्षाश्रुओं का स्रोत फूट पड़ा। एक ही दिन में लगभग 47 किलोमीटर के प्रलंब विहार के बावजूद भी उस एक मीटिंग में तीन बार किया गया वह वंदन न केवल आपश्री की अहं विलय की उत्कृष्ट साधना का ही द्योतक था, अपितु अहं पर आपकी पूर्ण विजय की पताका फहरा रहा था। आपश्री के मान से बहुत ऊपर उठे हुए स्वरूप का साक्षात्कार करा रहा था।
सबके द्वारा वंदनीय स्वयं शासन सम्राट द्वारा किसी अवम पदस्थ एक साध्वी (महिला) को इस रूप में वंदना करना स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन चरित्र की एक विशिष्ट बात का स्मरण करा देता है। कहते हैं जब स्वामी रामकृष्ण की साधना सिद्ध हो गई, उसके मन में स्त्री और पुरुष, छोटे और बड़े का कोई भेद नहीं रहा। वे मातृशक्ति (काली माँ) के आराधक थे और हरएक नारी में उन्हें मातृशक्ति के ही दर्शन हुआ करते थे। यही कारण था कि वे अपनी पत्नी शारदा को भी पत्नी के रूप में नहीं, माँ के रूप में देखते और माँ मानकर उन्हें प्रणाम भी किया करते थे।
परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा साध्वीप्रमुखाश्री जी को शासन की माँ ‘शासनमाता’ के रूप में स्वीकार करना तथा उन्हें इस रूप में वंदन करना उनकी धर्म के मूल-विनय की सधी हुई साधना को प्रकाशित करने वाली ही घटना है। पूज्यप्रवर की यह विरहंकारिता उनको विनय के जीवंत प्रतिमान मानत्तुंग महाश्रमण के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
अहंकार महापाप है। अहंकार पतन का मार्ग है, इस तथ्य को बहुत अच्छी तरह से जानने और मानने वाले लोग भी अहं विलय की साधना में सफलता प्राप्ति से काफी दूर रह जाते हैं। यह सच है अहं पर विजय पाना किसी बड़े तप और ध्यान से भी अधिक दुस्तर है। एक छोटी-सी बात से व्यक्ति का ईगो हर्ट हो जाता है। अहंकाररूपी नाग फुफ्कार उठता है।
प्रश्न है आचार्यप्रवर ने ऐसा क्या आलंबन लिया होगा जिसके आधार पर आपश्री ने इस हद तक अपने अहं को जीतने में सफलता प्राप्त कर ली। मैंने इस विषय में चिंतन किया तो मुझे प्रकाश की कुछ किरणें दिखाई दीं। आगम में भगवान महावीर कहते हैं-‘माणं मद्दवया जिणे’ मान को मृदुता अर्थात विनम्रता से जीतो। संभव है गुरुदेवश्री ने इसी सूत्र को अपने जीवन का अंग बना लिया और इसकी साधना करते-करते अपने मान पर बेहद विजय प्राप्त कर ली। इसीलिए तो गुरुदेवश्री की मृदुता श्लाघनीय है। नवनीत की भाँति मृदु होने के कारण गुरुदेव न केवल बड़ों के साथ अपितु छोटों के साथ भी बहुत कोमल व्यवहार करते हैं। अनुशास्ता होने के बावूजद भी कठोरता का उपयोग प्रायः कभी नहीं करते।
मैंने गुरुदेवश्री के प्रवचनों में कई बार सुना है, साहित्य में पढ़ा है, जहाँ गुरुदेव फरमाते हैं-हम अहं किस बात का करें? हमारी आत्मा न जाने कितनी बार बेर की गुठली में उत्पन्न होकर लोगों की ठोकरें खा चुकी है। फिर अहं किस बात का? मुझे लगता है अहं विलय का यह भी अपने आपमें एक बहुत बड़ा आलंबन सूक्त है। संभव है इसकी अनुप्रेक्षा करते-करते गुरुदेवश्री अहं विलय की साधना में बहुत आगे बढ़े हैं। एक जैन साधु भिक्षोपजीवी साधु होता है। जीवन चलाने के लिए आवश्यक हरएक वस्तु के लिए उसे गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना पड़ता है। क्योंकि उसका अपना कुछ भी नहीं होता। दूसरों के सामने हाथ फैलाकर जीने वाला किस बात का अहं करे? अहं विलय की साधना के लिए यह भी एक सूक्त हो सकता है।
हम सौभाग्यशाली हैं कि इस पंचम काल में हमें तीर्थंकर भगवान तुल्य मानत्तुंग गुरुदेवश्री की मृदु अनुशासना प्राप्त है। पूज्यप्रवर के 14वें पदाभिषेक के उपलक्ष्य में, मैं यही मंगलकामना करती हूँ कि आपश्री चिरायु एवं निरामय रहकर युगों-युगों तक अपनी मृदु अनुशासना से हमारा मार्गदर्शन कराते रहें एवं हमें ऐसा शुभाशीर्वाद प्रदान करें कि हम भी आपश्री की मानत्तुंग जीवंत साधना का अनुसरण कर शीघ्रातिशीघ्र अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकें।