युगपुरुष सौ-सौ प्रणाम
गांभीर्य, धैर्य, औदार्य एवं वीर्य की चतुष्टयी से समन्वित महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अलौकिक व्यक्तित्व से संपन्न युगपुरुष हैं। सरदारशहर की पावन धरा पर माँ नेमां की कुक्षि से आपने दुगड़ कुल में जन्म लिया। मोहन अभिधान से अभिहित बालक माँ द्वारा प्रदत्त संस्कार और परिवार के धार्मिक वातावरण से संपोषित होने लगा। अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक और प्रबंधन कला में निष्णात बालक मोहन प्रारंभ से ही अपने जीवन विकास के प्रति सावधान थे। मंत्री मुनि सुमेरमलजी स्वामी की निकट सन्निधि बालक के भावी जीवन के लिए वरदान सिद्ध हुई। सुप्त संस्कार जागृत हुए, साधुत्व ग्रहण करने की भावना बलवती बनने लगी और एक दिन वे मुनिश्री की प्रेरणा से दृढ़ निश्चयी बने। पूज्य अष्टमाचार्य कालूगणी के स्मरण ने उनके निश्चय को अभिव्यक्ति तक पहुँचाया। ‘मैं साधु बनूँगा’ इस संकल्प की स्वीकारोक्ति से मोहन अग्रिम यात्रा के लिए यात्रायित होने लगे। आचार्य तुलसी की पारखी नजरों ने बालक के भविष्य को पढ़ा और उन्हें दीक्षा देने की आज्ञा प्रदान की। जन्मभूमि में ही मंत्री मुनिप्रवर से दो बालकों ने दीक्षा ग्रहण की। एक मुनि मुदित (आचार्य महाश्रमण) दूसरा मुनि उदित।
दीक्षा ग्रहण के साथ ही मुनि मुदित के जीवन का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। तत्त्वज्ञान की गहराई में उनकी बुद्धि ने प्रवेश किया। जैन दर्शन की बारीकियों को सूक्ष्मता से समझने की प्रतिभा क्रमशः विकसित होने लगी। आचार्य तुलसी ने उनके व्यक्तित्व निर्माण में सलक्ष्य अपना ध्यान केंद्रित किया। संस्कृत, प्राकृत और अंग्रेजी भाषा के क्षेत्र में अपने चरण बढ़ाए।
आचार्य तुलसी के प्रति उनका समर्पण भाव, साध्वाचार के प्रति पूर्णतया सावधानी से मुनि मुदित सबके लिए प्रियता के पात्र बन गए। प्रियता ही प्राप्त नहीं की गुरुदेव तुलसी ने आपकी योग्यताओं और क्षमताओं का मूल्यांकन कर आपको महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठापित कर मानो शुभ भविष्य की संरचना कर दी। आचार्य महाश्रमण जी (तत्कालीन युवाचार्य) के अंतरंग सहयोगी के रूप में आपकी अर्हताएँ उजागर हो चुकी थीं, इसी का सुपरिणाम था महाश्रमण पद की प्राप्ति। गुरुवर ने आपको अध्यात्म के क्षेत्र में विहरण करने का खुला आकाश दिया और आपने अपनी मजबूत धृति और शक्तिरूपी पंखों के बल पर सक्षम उड़ान भरी। आचार्य महाप्रज्ञजी आपको युवाचार्य पद देकर स्वयं ही निश्चिंत नहीं हुए अपितु पूरे धर्मसंघ को आश्वासन दिया, विश्वास दिया। सरदारशहर की पवित्र धरती को सौभाग्य मिला, एकादशम् अधिशास्ता के रूप में आपकी अभिवंदना करके।
आचार्यकाल में आपश्री द्वारा प्रारंभ की गई ‘अहिंसा यात्रा’ इतिहास का एक दुर्लभ दस्तावेज बन गई। देश-विदेशों में अहिंसा, सद्भावना और नैतिकता के जो सुमन खिले हैं, उनमें आचार्यप्रवर के श्रम की बूँदें प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर हो रही हैं। विषय वातावरण और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी दृढ़-संकल्पी महातपस्वी के चरण सतत बढ़ते रहे। आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा प्रदत्त महातपस्वी संबोधन को सार्थक करते रहें। शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी द्वारा प्रदत्त युगप्रधान अलंकरण आपसे जुड़कर स्वयं अलंकृत हो उठा। सरदारशहर की महनीय माटी महक उठी अपने लाड़ले की अर्चना में।
युगप्रधान का भव्यातिभव्य समारोह युगों-युगों तक धर्मसंघ को पे्ररणा प्रदान करता रहेगा। युग पुरुष कौन होता है? राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-
सबकी पीड़ा के साथ व्यथा
अपने मन की जो जोड़ सके
मुड़ सके जहाँ तक समय उसे
निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके
युगपुरुष सारे समाज का
विहित धर्मगुरु होता है
सबके मन का जो अंधकार
अपने प्रकाश से धोता है।
उपर्युक्त काव्य पंक्तियों के आलोक में हम आचार्यश्री महाश्रमण जी को वस्तुतः युगपुरुष के रूप में देख रहे हैं, जिन्होंने अध्यात्म जगत को नया आलोक, समाज को जीने का विज्ञान दिया है। इसी के साथ दिया संघ को नवम् साध्वीप्रमुखा मनोनयन का विशिष्ट उपहार। स्वयं के दीक्षा दिवस वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को आपश्री ने मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी को साध्वीप्रमुखा के रूप में मनोनीत किया। दृश्य एवं श्रव्य वह कार्यक्रम आपकी हंस मनीषा को अभिव्यक्त कर रहा था। आपश्री के तेजस्वी एवं ओजस्वी में चिंतन की गुरुता और संयम प्रकृष्ट आराधना प्रणम्य है। आप चिरायु हों, निरामय हों यही हार्दिक मंगलकामना। करुणा के महासागर ऐसे युगप्रधान युगपुरुष को सौ-सौ प्रणाम।