उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी

घर की आर्थिक अवस्था बहुत साधारण थी, अतः उन्हें शीघ्र ही नौकरी करने को बाध्य होना पड़ा। जोधपुर मोतीचैक में उनकी मौसी का परिवार रहता था। उसी आधार से वे जोधपुर गए और नौकरी की खोज करने लगे। नगर-कोतवाल से संपर्क करने पर उसने उन्हें नगर के दरवाजे पर चैकीदारी का कार्य सौंपा। बहुत साधारण परिश्रम का कार्य था। अधिक समय तो उनका केवल बैठे रहने में ही व्यतीत होता था। उस समय का उन्होंने उपयोग करना प्रारंभ कर दिया। लिपि-सौंदर्य के लिए वे पाटियाँ लिखते तथा कभी-कभी सीखे हुए गणित के आधार पर लिख-लिखकर सवाल भी हल करते रहते। प्रतिदिन उधर से आने-जाने वाले कई पढ़े-लिखे लोगों को उन्होंने परिचित कर लिया था। अनेक बार उनसे पूछ-पूछकर वे नया ज्ञान भी अर्जित करते रहते थे। एक दिन नगरसेठ रघुनाथशाह उधर से गुजरे। उन्होंने चैकीदारी करने वाले एक युवक को इस प्रकार पूरी लगन से पाटी लिखते देखा तो उधर आकृष्ट हुए। उन्होंने उसका परिचय तो प्राप्त किया ही, लिखी हुई पाटी भी देखी। मोती जैसे सुंदर अक्षरों की पंक्तियों ने उनके मन को मुग्ध कर लिया। उन्होंने उसी समय उन्हे अपने यहाँ मुनीमी करने का निमंत्रण दे दिया। भंडारीजी ने अपनी प्रगति का द्वार यों सहज ही खुलते देखा तो चट से चैकीदारी का कार्य छोड़कर नगरसेठ के वहाँ चले गए। सेठजी का व्यापार अनेक स्थानों पर चलता था। बहादुरमलजी को नागौर की दुकान पर भेज दिया और प्रारंभ में केवल पाँच रुपया मासिक देना निश्चित किया। वहाँ जाकर उन्होंने बड़ी योग्यता से कार्य किया और अपनी प्रतिभा का काफी अच्छा परिचय दिया। क्रमशः उनकी उन्नति होती हुई। थोड़े ही दिनों में वे सेठजी के अच्छे विश्वास-पात्र बन गए।
एक बार सेठजी से जोधपुर-नरेश की किसी कारण से अनबन हो गई। आगे से आगे ऐसी परिस्थितियाँ बनती गईं कि वह मन-मुटाव बढ़ता ही गया। नरेश ने उनको दी गई सब बख्शिशें जब्त कर लीं। भंडारीजी ने तब सेठजी से निवेदन किया कि समुद्र में रहकर मगर से वैर रखना उपयुक्त नहीं है। आप किसी भी उपाय से इस झगड़े को समाप्त कर दीजिए। सेठजी ने तब इसे सम्मान सहित निबटाने का भार भंडारीजी को ही सौंप दिया। भंडारीजी ने सेठजी से जोधपुर-नरेश के नाम एक पत्र लिखवाया और उसे लेकर वह राजसभा में उपस्थित हुए। अपना परिचय प्रस्तुत करने के पश्चात् उन्होंने इतने चार्तुय और माधुर्य के साथ बातचीत की कि नरेश पानी-पानी हो गए। पिछला सारा शेष भूलने के साथ-साथ वे इतने प्रसन्न हुए कि सेठजी को बुलाकर उन्हें सभी बख्शिशें पुनः प्रदान कीं तथा पहले से भी अधिक सम्मानित किया।
इस घटना ने भंडारीजी के जीवन को भी पलट दिया। जोधपुर-नरेश ने एक जौहरी की तरह उस नर-रत्न की पहचान की। उनकी बुद्धिमत्ता, निर्भीकता, वाक्चातुर्य और कार्य-कुशलता से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने सेठजी से भंडारीजी को राजकीय सेवाओं के लिए माँग लिया। इस प्रकार वे व्यावसायिक क्षेत्र से निकलकर प्रशासन-क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। अपने प्रथम क्षेत्र में उन्होंने जिस योग्यता और विश्वसनीयता से काम किया था, उसी प्रकार इस क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी धाक जमाई। थोड़े-से ही समय में वे जोधपुर नरेश महाराज तख्तसिंहजी के अत्यंत विश्वस्त व्यक्ति हो गए। नरेश के पास उनकी मान्यता के विषय में स्थानीय लोगों में यह तुक्का प्रचलित हो गया थाµ‘मांहें नाचै नाजरियो, बारे नाचै बादरियो’ अर्थात् अंतःपुर में तो नाजरजी का बोल-बाला है और नरेश के पास बहादुरमलजी का।
भंडारीजी ने नरेश के निजी कार्यालय से लेकर कोषाधिकारी तक के अनेक कार्य संभाले। अपने अधिकार क्षेत्र की राजकीय व्यवस्थाओं में समय-समय पर उन्होंने अनेक सुधार किए और कार्य को सुदिशा प्रदान की। बहुत बार ऐसा भी हुआ कि जिन विभागों में सुधार की आवश्यकता अनुभव की गई, वे उन्हें सौंपे गए। उन दिनों ‘चुंगी’ राजस्व-विभाग का एक अंग थी, पर उस विषय के नियमोपनियम के अभाव से तथा कोई संगठित प्रारूप न होने से उसका बहुत बड़ा भाग प्रायः यों ही नष्ट हो जाया करता था। उस क्षति को ध्यान में रखकर उन्होंने उस विभाग का एक अच्छा संगठन स्थापित किया और क्षति के उन स्रोतों को बहुलांश में रोक दिया। उसी प्रकार ‘कोठार’ तथा ‘बागर’ के विभाग को भी उन्होंने बहुत समुन्नत तथा सुसंगठित बनाया।

(क्रमशः)