हर्षित मन से आज बधाएँ
सा- साध्वी प्रमुखा विश्रुतविभा जी, मुदितमना हम आज बधाएँ।
प्रथम मनोनयन दिन तेरा, बोलो, क्या उपहार सजाए।
ध्- ध्येय तुम्हारा रहता सम्मुख, प्राणवान है साधना।
जप- तप में रहती लीन सदा तुम, करती हो आत्माराधना।।
वी- वीतरागता मंजिल तेरी, वीतराग-पथ पर गतिमान।
उपशम भाव में तन्मय बनकर करती रहती स्व-संधान।।
प्र- प्रथम नियोजिका समणी-गण की, गुरु तुलसी ने तुम्हें बनाया।
जो भी मिला दायित्व उसको, बखूबी तुमने सदा निभाया।।
मु- मुख्य नियोजिका बनकर गण में, तुमने नव इतिहास रचाया।
शासन माता की सन्निधि में, अनुभव कौशल खूब बढ़ाया।।
खा- खाते-पीते, सोते-उठते, नाम गुरु का सम्मुख रहता।
महर-नजर जो पाता गुरु की, रिती गागर वो ही भरता।।
श्री- श्री, हृी, धी संपन्नता हो तुम धृति, शक्ति, शांति सहचारी।
नंदी की उपासिका हो तुम, तेज, शुक्ल तेरा मनहारी।।
वि- विनय, समर्पण अद्भुत तेरा, गुरु के दिल में स्थान बनाया।
त्रय गुरुओं ने हर पल, हर क्षण, प्रगति-पंथ पर सदा बढ़ाया।।
श्रु- श्रुतोपयोग है तेरा निर्मल, ज्ञानराशि तेरी बेजोड़।
सम्मान मिला जो गण में तुमको, नहीं है उसका कोई जोड़।।
त- तपस्या तव जीवन शंृगार, तप ही है जीवन आधार।
साध्वी प्रमुखा पद जो पाया, वो भी मानो तप उपहार।।
वि- विमल भावों में रहती निशदिन, उज्ज्वल चिंतन, उन्नत आचार।
विमल भावों से सति शेखरे! जीवन हुआ तेरा गुलजार।।
भा- भास्कर-सा है भाल तेजस्वी, मुख पर चंदा-सी शीतलता।
चिंतन तेरा हिमगिरी सम है, सागर सी गंभीरता।।
जी- जीवन की मनहर पोथी पर, सुंदर-सा इतिहास रचाओ।
अपने विजन, चिंतन द्वारा भिक्षु-गण का मान बढ़ाओ।।
लो- लोचन सुख दे छवि तुम्हारी, सूरत तेरी है मनहारी।
नेतृत्व निराला पाकर तेरा, खिल रही गण की क्यारी-क्यारी।।
ब- बधाई, बधाई, बधाई देते, गुरुवर ने पहनाया ताज।
युगों-युगों तक करो शासना, श्रमणी-गण के अल्फाज।।
धा- धार बहाओ ज्ञानामृत की, ज्ञानामृत का पान कराओ।
शासनमाता के इस पट की, महामाते! तुम शान बढ़ाओ।।
ई- ईख जैसी मधुर वाणी, सुनकर सबका मन हरसाए।
अणिमा-वर्ग दिल्ली में बैठा, हर्षित मन से आज बधाएँ।।