मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आसनों का वर्गीकरण

स्वास्थ्य के मूल तत्त्व हैं-(1) वीर्याशन की शुद्धि, (2) नाड़ी-संस्थान की शुद्धि, (3) पाचन-संस्थान की शुद्धि, (4) वायु-शुद्धि, (5) उत्सर्ग-शुद्धि।
वीर्याशय की शुद्धि के लिए उपयोगी आसन-(1) भुजंगासन, (2) संप्रसारण-भूनमनासन,
(3) कंदपीड़नासन, (4) कुक्कुटासन, (5) योगमुद्रा, (6) मत्स्येन्द्रासन, (7) महामुद्रा।
नाड़ी-संस्थान की शुद्धि के लिए आसन-(1) कुक्कुटासन, (2) वीरासन।
पाचन-संस्थान की शुद्धि के लिए आसन-(1) सुप्त पद्मासन (पद्मासन में लेटना),
(2) अर्धलकुटासन (पैरों को ऊपर उठाए रखना), (3) महामुद्रा, (4) योगमुद्रा, (5) मत्स्येन्द्रासन,
(6) सोड्डीयान पद्मासन, (7) पश्चिमोत्तानासन, (8) धनुरासन, (9) सर्वांगासन।
वायु-शंद्धि के लिए उपयोगी आसन-(1) पवनमुक्तासन, (2) उत्थितपद्मासन।
ये श्वास-शुद्धि के लिए भी उपयोगी हैं।
उत्सर्ग-शुद्धि के लिए उपयोगी आसन-(1) सोड्डीयान पद्मासन, (2) बद्धपद्मासन,
(3) मुष्टियुक्तयोगमुद्रा (योगमुद्रा में दोनों मुट्ठियों को एड़ियों के पास सटाकर बैठना), (4) अर्धलकुटासन (उचित पादासन)।
शरीर के विभिन्न अवयवों की उपयोगिता की दृष्टि से भी आसनों के कुछ वर्गीकरण किए जा सकते हैं।
सिर, नाक, कान और आँख के लिए उपयोगी आसन-(1) सर्वांगासन, (2) ऊर्ध्वपद्मासन।
गर्दन और कंधों के लिए उपयोगी आसन-(1) सर्वांगासन, (2) हलासन, (3) मत्स्यासन,
(4) जालंधरबंध।
छाती, फेफड़े और हृदय के लिए उपयोगी आसन-(1) भुजंगासन, (2) धनुरासन,
(3) पवनमुक्तासन, (4) प्राणायाम।
हाथ और पैर के लिए उपयोगी आसन-(1) उत्थित पद्मासन।
वृषण-वृद्धि के लिए उपयोगी आसन-(1) सर्वांगासन, (2) शीर्षासन।
आसन संबंधी सामान्य निर्देश
(1) आसनकाल में मन तनाव से मुक्त रहना चाहिए। शारीरिक तनाव मानसिक तनाव से पैदा होता है। मन जितना खाली होगा, उतना ही शरीर तनावमुक्त होगा अर्थात् आसन के प्रायोग्य होगा।
(2) जिस अवयव-संबंधी आसन करें, उसी अवयव में मन को टिकाए रखें।
(3) श्वास दीर्घ और मंद लें। मन की गति आसन से संबंधित अवयव पर होती है तो श्वास का अंतःप्रवाह मुख्य रूप से उस अवयव की ओर सहज ही हो जाता है।
(4) आसन का प्रयोग शुद्ध हवा में करना चाहिए।
(5) पद्मासन-सुखासन जैसे मृदु आसनों को छोड़कर शेष अधिकांश आसन भोजन के पश्चात् तीन घंटे से पहले नहीं करने चाहिए। कठोर आसन करने के पश्चात् आधे घंटे से पहले भोजन नहीं करना चाहिए।
साधारणतया शौच से निवृत्त होने के पश्चात् प्रातःकाल में आसन करना अति उपयुक्त है अथवा रात्रिकाल में।
(6) आसन करने वाले को डटकर भोजन नहीं करना चाहिए। उसका भोजन सात्त्विक होना चाहिए।
(7) आसन के पश्चात् उसका प्रतिलोम आसन अवश्य करना चाहिए। जैसे-
अनुलोम प्रतिलोम
सर्वांगासन मत्स्यासन
भुजंगासन पश्चिमोत्तानासन
प्रतिलोम आसन की काल-मर्यादा अनुलोम आसन से आधी होनी चाहिए। यदि दस मिनट सर्वांगासन हो तो मत्स्यासन पाँच मिनट करना चाहिए।
(8) प्रत्येक आसन के पश्चात् एक मिनट का उत्तानशयन (शवासन) करना चाहिए और आसन के पूरे क्रम की समाप्ति पर उक्त आसन पाँच मिनट से पंद्रह मिनट तक करना चाहिए।
(9) आसन-काल में कसा हुआ वस्त्र, जो रक्त संचार में बाधा डाले, नहीं पहनना चाहिए किंतु कोपीन आवश्यक है।
(10) हर आसन के साथ मूल-बंध अवश्य करना चाहिए।
आसन का सामान्य प्रयोजन
भगवान् महावीर ने आसन को तप का एक प्रकार बतलाया है। उनकी भाषा में आसन का नाम कायक्लेश है। आसन के द्वारा शरीर को कुछ कष्ट होता है। उस कष्ट से मानसिक धैर्य और सहिष्णुता का विकास होता है। यह आसन का आध्यात्मिक लाभ है।
आसन के द्वारा धमनियों में रक्त का संचार उचित प्रकार से होता है। अवस्था के साथ हृदय की धमनियाँ कठोर और संकरी होती जाती हैं। उन्हें रोकने का उपाय आसन के द्वारा समुचित मात्रा में रक्त पहुँचाते रहना है। इस प्रकार आध्यात्मिक और शारीरिक दोनों दृष्टियों से आसन मूल्यवान है।
जैन साधना पद्धति में आहारविजय, आसनविजय और निद्राविजय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आहार और निद्रा-ये दोनों शरीर की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। आहार के बिना जैसे शरीर शक्तिशाली और स्वस्थ नहीं रहता वैसे ही निद्रा के बिना वह स्वस्थ और कार्यक्षम नहीं रहता। आहार के लिए जैसे मात्रा का प्रश्न है, वैसे ही निद्रा के लिए भी मात्रा का प्रश्न है। आहार के लिए जैसे सामान्य नियम है-जितनी भूख उतना भोजन, वैसे ही निद्रा के लिए भी सामान्य नियम यह है-जितनी जरूरत उतनी नींद। निद्राविजय का अर्थ निद्रा को कम करना नहीं है किंतु निद्रा की जरूरत को कम करना है। शरीर में जितना विष जमा होता है उसे शरीर निकालता है। उसे निकालने की एक प्रक्रिया निद्रा है। प्रवृत्ति जितनी अधिक और उत्तेजित होती है। उतनी ही निद्रा की जरूरत अधिक होती है। वह जितनी कम और शांत होती है उतनी ही निद्रा की जरूरत कम हो जाती है। निद्रा के लिए ऐसा कोई स्थूल नियम नहीं बनाया जा सकता कि छह घंटा ही सोना है अथवा उससे कम या अधिक सोना है। मानसिक विश्राम, मन की स्थिरता और निर्विकल्पता से नींद की जरूरत अपने आप कम हो जाती है। हठपूर्वक निद्रा को कम करने का प्रयत्न शरीर और मन-दोनों के लिए हितकर नहीं होता। नींद लेने के बाद शरीर हल्का, मन प्रसन्न और इंद्रियाँ कार्यक्षम हों तो समझना चाहिए कि नींद पर्याप्त ली गई है। कायोत्सर्ग या शिथिलीकरण के समय जो विश्रांति होती है, वह कई घंटों की नींद का काम कर देती है। वह सूत्र स्मृति में रखना होगा कि निद्राविजय का अर्थ है निद्रा की आवश्यकता का अल्पीकरण।
(12) वाचां संवरणं मौनम्।।
(12) वाणी के संवरण को मौन कहा जाता है। यह वचन-गुप्ति है। पहले काय की गुप्ति होती है, फिर वचन की गुप्ति होती है, तत्पश्चात् मन की गुप्ति होती है।

मौन
चंचलता का बहुत बड़ा हेतु वाणी है। यदि वाणी नहीं होती तो हमारा दूसरों के साथ संपर्क नहीं होता। हम एक-दूसरे से कटे हुए होते। उस कटाव की स्थिति में या पारस्परिक संबंधों के अभाव की स्थिति में हमारी प्रवृत्तियाँ सीमित हो जाती हैं। फलतः हमारी चंचलता मिट जाती है। पूज्यपाद ने लिखा है कि जन-संपर्क में वाणी का प्रयोग होता है। उससे चंचलता बढ़ती है। मानसिक स्थिरता चाहने वाला व्यक्ति वचन की स्थिरता नहीं करता तो इसका अर्थ होगा कि उसकी मानसिक स्थिरता की चाह वास्तविक नहीं है।
जब भाषा गौण होती है और मन प्रधान होता है तब हम चिंतन की स्थिति में होते हैं और जब मन गौण होता है और भाषा प्रधान होती है तब हम बोलने की स्थिति में होते हैं। जब भाषा और मन अलग-अलग हो जाते हैं तब हम ध्यान की स्थिति में होते हैं।
प्रयोजन के बिना व बोलना वाणी की प्रवृत्ति नहीं है, फिर भी प्रस्तुत प्रकरण में उसे मौन कहना इष्ट नहीं है। मौन के पीछे न बोलने का दृढ़ मानसिक संकल्प होना चाहिए। यह संकल्प ही उसकी विशेषता है। मौनकाल में दोनों होंठ मिले हुए रहने चाहिए। उदान वायु पर विजय पाने का यह बहुत महत्त्वपूर्ण उपाय है। बोलने से शक्ति क्षीण होती है। मौन के द्वारा सहज ही उससे बचाव हो जाता है। इस प्रकार मौन अनेक मार्गों से मन की एकाग्रता में सहायक होता है।
(13) इंद्रिय-कषायनिग्रहो विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता।
(14) इंद्रियाणां विषय-प्रचारनिरोधो विषय-प्राप्तेषु अर्थेषु राग-द्वेष-निग्रहश्च इंद्रिय-प्रतिसंलीनता।
(15) क्रोधादीनां उदय-निरोधस्तेषामुदय प्राप्तानां च विफलीकरणं कषाय-प्रतिसंलीनता।
(16) ऐकाग्र्योपघातक-तत्त्व-रहितेषु स्थानेषु निवसनं विविक्तवासः।।
(13) पाँ इंद्रिय (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निग्रह तथा विविक्तवास (एकांतवास) को प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) कहा जाता है।
इस परिभाषा से प्रतिसंलीनता के तीन प्रकार फलित होते हैं-(1) इंद्रियप्रतिसंलीनता, (2) कषायप्रतिसंलीनता, (3) विविक्तवास।
(14) इंद्रियों के विषय-प्रचार को रोकने (विषयों का ग्रहण न करने) तथा जो विषय प्राप्त हों उन पर राग-द्वेष न करने को इंद्रियप्रतिसंलीनता कहा जाता है।
(15) क्रोध, मान, माया और लोभ को उदय में न जाने तथा वे उदय में आ जाएँ तो उन्हें विफल करने को कषाय-प्रतिसंलीनता कहा जाता है।
(16) एकाग्रता में बाधा डालने वाले तत्त्वों से रहित स्थान को विविक्तवास कहा जाता है।

(क्रमशः)