संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(4) प्रहाण्या कर्मणां कि×िचद्, आनुपूर्व्या कदाचन।
जीवाः शोधिमनुप्राप्ता, आव्रजन्ति मनुष्यताम्।।
कर्मों की हानि होते-होते जीव क्रमशः विशुद्धि को प्राप्त होते हैं और विशुद्ध जीव मनुष्यगति में जन्म लेते हैं।

(5) लब्ध्वाऽपि मानुषं जन्म, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यां श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिमहिंसताम्।।
मनुष्य का जन्म मिलने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है, जिसे सुनकर लोग तप, क्षमा और अहिंसक वृत्ति को स्वीकार करते हैं।

(6) कदाचिच्छ्रवणे लब्धे, श्रद्धा परमदुर्लभा।
श्रुत्वा नैर्यात्रिकं मार्गं, भ्रश्यन्ति बहवो जनाः।।
कदाचित् धर्म को सुनने का अवसर मिलने पर भी उस पर श्रद्धा होना अत्यंत कठिन है। पार पहुँचाने वाले मार्ग को सुनकर भी बहुत से लोग भ्रष्ट हो जाते हैं।

(7) श्रुति×च लब्ध्वा श्रद्धा×च, वीर्यं पुनः सुदुर्लभम्।
रोचमाना अप्यनेके, नाचरन्ति कदाचन।।
धर्म-श्रवण और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी वीर्य दुर्लभ है। अनेक लोग श्रद्धा रखते हुए भी धर्म का आचरण नहीं करते।
(क्रमशः)