उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी

जोधपुर-राज्य उन जैसे बुद्धिमान् व्यक्ति से अंत तक उपकृत होता रहा। जोधपुर-नरेश महाराज जसवंतसिंहजी ने उनकी मृत्यु से लगभग चार महीने पूर्व उन्हें राजकोष संभालने तथा सुसंगठित करने का कार्य सौंपा। उन्होंने उस कार्य का प्रारंभ तो किया, परंतु बीच में ही रुग्ण हो जाने तथा कुछ समय पश्चात् दिवंगत हो जाने से पूर्ण नहीं कर सके। उनकी मृत्यु के पश्चात् वह कार्य उनके सबसे बड़े पुत्र किसनमलजी भंडारी को सौंपा गया। वे उसे सं0 1956 तक सुचारु रूप से संभालते रहे।
सादा जीवन, उच्च विचार
भंडारीजी के जीवन-व्यवहार में सादगी का अच्छा स्थान था। वेशभूषा में ही नहीं, किंतु रहन-सहन में भी वे सादापन ही पसंद करते थे। वे प्रतिदिन प्रातःकाल नरेश को मुजरा करने जब राजमहल में जाते तब घोड़ा साथ में रखते, परंतु जाते पैदल ही, वापस आते समय उसकी सवारी करते थे। उसमें उनका ध्येय रहता था कि पैदल चलने की आदत बनी रहे तथा स्वास्थ्य ठीक रहे।
उनके घर में बहलियाँ तथा रथ रहा करते थे, परंतु वे अपनी पुत्रवधुओं को कहा करते कि अन्य सभी स्थानों में इनका प्रयोग यथेच्छ किया जा सकता है, परंतु जब किसी की मृत्यु के अवसर पर संवेदना प्रकट करने जाना हो तथा अपने पीहर जाना हो तब इनका प्रयोग न करें। अपने वैभव से यदि किसी के मन में ईर्ष्या-भाव जागे तो फिर वैसे वैभव का भोग निरर्थक है। यह उनके विचारों की उच्चता का उदाहरण कहा जा सकता है।
परिवार और व्यवस्था
बहादुरमलजी के चतुर्भुजजी और पंचाणदासजी नाम के दो छोटे भाई थे। वे उनका अपने पुत्रों से भी अधिक ध्यान रखते थे। जब कोई उन्हें पूछता कि भाइयों को इतना महत्त्व देने का क्या कारण है? तो वे कहतेµ‘भाई तो मेरी भुजाएँ हैं, उनको न्यून कैसे समझा जा सकता है?’
भंडारीजी के चार पुत्र और एक पुत्री थी। वे पाँचों संतानों को समान दृष्टि से ही देखा करते थे। भारतीय समाज पुत्रों को जितना अधिक महत्त्व देता है उतना पुत्रियों को नहीं। पुत्री ‘हांती’ की अधिकारिणी मानी जाती है। ‘पांती’ की नहीं। फिर भी भंडारीजी ने उस बात की परवाह न करके अपनी संपत्ति के बराबर पाँच विभाग किए और उनमें से एक अपनी पुत्री को दिया।
उन्होंने अपने चारों पुत्रों को संपत्ति-विभाजन के पश्चात् जो उसका अधिकार-पत्र दिया, उसमें सीर की वस्तुओं की सुरक्षा के लिए लिखाµ‘चारूं भाई सीर नै शील बराबर समझसी।’ सीर-साझे को अपनी शील के समान ही पवित्र समझ कर उत्तरदायित्व वहन करने की बात उनके हृदय की पवित्रता को तो व्यक्त करती ही है, साथ ही उन व्यक्तियों को दिग्बोध भी कराती है, जो संयुक्त उत्तरदायित्व में बंधते हैं।
अटल धर्मानुराग
जोधपुर के एक यतिजी के वहाँ भंडारीजी का काफी आना-जाना था। यह शायद प्रारंभिक वर्षों की बात है। उन्होंने यतिजी को कह रखा था कि आप तेरापंथ और उसके आचार्यों के प्रति यदि कोई निंदात्मक बात कहने लगेंगे तो अपना यह प्रेम-भाव निभ नहीं सकेगा। मैं उसी दिन से यहाँ आना छोड़ दूँगा। यतिजी इसके लिए वचनबद्ध थे कि वे कभी किसी के सम्मुख ऐसी कोई बात नहीं करेंगे। परंतु उस युग में तेरापंथ के विषय में बात न करना कठिन कार्य था। जैनों के प्रत्येक संप्रदाय में धर्म की चर्चा चलते ही घूम-फिर कर बहुधा वह तेरापंथ पर आ जाती थी। कहीं उसका स्वरूप प्रशंसात्मक होता तो कहीं निंदात्मक। यतिजी वादा करके भी उसे निभा नहीं पाए। भंडारीजी के सम्मुख तो वे बचते रहे, पर पीछे से निंदा करते रहे। एक दिन यतिजी किसी के साथ निन्दात्मक बातें कर रहे थे कि अचानक भंडारीजी आ गए। उनके अंदर आते ही यतिजी ने बात का रुख बदल दिया, परंतु वे बाहर खड़े रहकर पहले ही बातों का सारा सिलसिला सुन चुके थे। अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने यतिजी को जता दिया और फिर कभी उस उपाश्रय में नहीं गए। उन जैसे धर्मानुरागी व्यक्ति भला अपने गुरु की निंदा कैसे सुन व सहन कर सकते थे? यतिजी ने उस विषय को लेकर कई बार क्षमा-याचना भी की, परंतु भंडारीजी ने स्पष्ट कह दिया कि एक बार जिसने वचन-भंग कर दिया वह दूसरी बात नहीं करेगा, इसका क्या विश्वास है? मैं अब कभी नहीं आऊँगा। (क्रमशः)