महात्मा न बन सकें तो सदात्मा बनने का प्रयास करें: आचार्यश्री महाश्रमण
भगवान महावीर यूनिवर्सिटी, वेसु-सूरत, 25 अप्रैल, 2023
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आत्मा के आठ प्रकार बताए गए हैं। दूसरे वर्गीकरण में आत्मा के चार प्रकार हैं-परमात्मा, महात्मा, सद्-आत्मा और दुरात्मा। सर्वकर्म मुक्त अवस्था, मोक्ष को प्राप्त हो चुकी द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वीर्य आत्मा परमात्मा है। वे सिद्ध मुक्त जीव हैं। संसार में तीन प्रकार की आत्माएँ रहती हैं। संत-साधु लोग महात्मा यानि महान आत्माएँ हैं। जो गृहस्थ जीवन में धार्मिक, परोपकारी, ईमानदार, अहिंसा प्रेमी, संयम व नैतिकता का पालन करने वाले लोग सदात्मा होते हैं। हिंसा, लूटपाट आदि पापों में रचे-पचे रहकर दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, वे दुरात्माएँ हैं।
शास्त्र में कहा है कि दुरात्मा अपना बहुत नुकसान कर लेती है। किसी की हत्या करने वाला तो एक जीवन का नाश कर सकता है, पर दुरात्मा तो भव-भव दुःख देने वाली, दुःख पाने वाली बन सकती है। जब मृत्यु का समय निकट आता है, तब दुरात्मा के मन में पश्चाताप होता है कि अब मेरा क्या होगा। मैंने धर्म नहीं किया। मुझे तो नरक में जाना पड़ेगा। इसलिए हमें पहले से ही जागरूक रहना चाहिए। अगर महात्मा बन सको तो अति उत्तम। यदि महात्मा न बन सको तो सदात्मा जरूर बनो। यह प्रयास सबको करना चाहिए। जो सज्जन आदमी होता है, वो दूसरों के दोष देखने, दूसरों की निंदा करने की कोशिश नहीं करता। हम अपने दोष देखें। दूसरों में अच्छे गुण हैं तो उनके प्रति प्रमोद भाव रखें। दूसरों को सुखी देखकर हमें दुखी और दूसरों को दुखी देखकर हमें सुखी नहीं होना चाहिए। कोई कष्ट में हों तो उनके प्रति अनुकंपा का भाव हो, आध्यात्मिक सहयोग करने का प्रयास हो। चित्त समाधि पहुँचाने का प्रयास करें। सज्जन आदमी अपनी बड़ाई नहीं करता, नीति को कभी नहीं छोड़ता, औचित्य का अतिक्रमण नहीं करता, कोई अप्रिय बात भी कह दे, तो वह गुस्सा नहीं करता। धार्मिक साधना करते हुए गृहस्थ सज्जनता का जीवन जीए।
दो प्रकार के धर्म होते हैं-उपासनात्मक धर्म और आचरणात्मक धर्म। दोनों में एक का ही चुनाव करना हो तो आचरणात्मक धर्म को स्वीकार कर लेना चाहिए। अच्छे ईमानदारी-अहिंसा के भाव रहें। वैसे जप करना, सामायिक करना भी अच्छा रहे। भावों में शुद्धि रहे। अणुव्रत गृहस्थों के आचरण को अच्छा बनाने वाला आंदोलन है। प्रेक्षाध्यान भी भावों को शुद्ध बनाने का अच्छा माध्यम बन सकता है। जिसके मन में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती है। उसके घेरे में बैरी व्यक्ति भी आ जाए, तो उसका बैर-भाव दूर हो जाता है। हम सब सदात्मा-महात्मा रूप में रहें। क्षमा-संतोष आदि गुणों का हमारे में विकास होता रहे, तो आत्मा का कल्याण हो सकता है।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि आत्मा को शुद्ध करने के लिए तप करना होता है। अपने भाव निर्मल होंगे तो आत्मा निर्मल बनेगी। पवित्रता का बड़ा महत्त्व होता है। स्वाध्याय, ध्यान एवं ब्रह्मचर्य एवं मंत्र अभ्यास से आत्मा शुद्ध और निर्मल बनाने का प्रयास करें। हम मन, वचन और काय के योग को शुद्ध रखें। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि धर्म की कसौटी दो प्रकार की होती है-व्यावहारिक और आचारात्मक। जिसका व्यवहार नैतिक है, वह धार्मिक है। धर्म को ग्रंथों से अपने व्यवहार में लाएँ। व्यवहार के साथ आचार भी अच्छा हो। सम्यक् दृष्टिकोण से व्यक्ति के जीवन में धर्म प्रविष्ट हो सकता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वी मंजुलयशा जी, साध्वी रुचिप्रभाजी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। तेरापंथ महिला मंडल एवं टीपीएफ द्वारा गीत प्रस्तुत किया गया। सभाध्यक्ष नरपत बोथरा, अमित सेठिया, टीपीएफ अध्यक्ष विजयकांत खटेड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। आचार्य महाश्रमण अक्षय तृतीया व्यवस्था समिति की ओर से वर्षीतप करने वालों की सूची रूप में एक पुस्तक श्रीचरणों में उपहृत की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।