ज्योतिचरण...शत-शत वंदन

ज्योतिचरण...शत-शत वंदन

साध्वी कृष्णाकुमारी
अध्यात्म के सुमेरू, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी का अभिनंदन अध्यात्म के सम्राट का अभिनंदन है। उनका अभिनंदन उनके अद्भुत विनय का, अनुत्तर संयम का, अप्रतिहत आनंद का एवं अनुपम निर्लिप्तता और निस्पृहता का अभिनंदन है।
(1) अद्भुत विनय-किसी भी पेड़ की सघनता, गहराई और मजबूती उसकी जड़ों पर निर्भर करती है। उसी प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व की ऊँचाई, गहराई का मापदंड उसकी विनम्रता से होता है। विनम्रता विकास के उच्च शिखर का स्पर्श कराती है। आचार्यप्रवर विनम्रता के शिखर पुरुष हैं। आज तक इतिहास में ऐसा कोई प्रसंग सुनने में, देखने में या पढ़ने में नहीं आया कि एक आचार्य जो संघ के सर्वाेच्च पद पर आसीन होते हुए अपनी शिष्या साध्वी को विधिवत् तीन बार प्रदक्षिण करे। परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी शिष्या साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी (शासनमाता) को पट्ट से नीचे विराजकर वंदना की। नयनाभिराम यह दृश्य देख लाखों आँखें श्रद्धा से नम हो गईं, नत हो गईं। आचार्यश्री की विनम्रता की पराकाष्ठा है, विनम्रता का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है-जो शताब्दियों के बीत जाने पर भी देश, समाज एवं भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा। अद्भुत विनम्रता का यह कालजयी अभिलेख युगों-युगों तक अमर रहेगा।
(2) अनुत्तर संयम-आपश्री के संयम पर्यव स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं अत्यंत उज्ज्वल है। आपश्री का आहार संयम, इंद्रिय संयम एवं वाणी संयम अनुत्तर है। आपश्री की अनासक्त चेतना इतनी जागृत है कि मनोनुकूल आहार उपलब्ध होने पर भी स्वेच्छापूर्वक उसका परिहार कर देते हैं। आप आहार को नहीं बल्कि श्रम को ही शरीर और मन की खुराक मानते हैं। नपे-तुले शब्दों में, निरवद्य भाषा का सूक्ष्म प्रयोग एवं आर्षवाणी से प्रयुक्त प्रवचन आपकी वीतराग चेतना को परिलक्षित करता है। सरस और सुबोध शैली में गहन तत्त्वों की प्रभावी प्रस्तुति आपश्री के प्रवचन कौशल की विशिष्टता है।
(3) अप्रतिहत आनंद-संहनन और धृति संपन्न व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में सुमेरू के समान अकंप रहते हैं। उनका धैर्य और मनोबल कदापि विचलित नहीं होता। वे निरंतर आनंदानुभूति का अनुभव करते हैं। आपश्री का दिव्य दर्शन उसी आनंदानुभूति से अणुप्राणित है। अनंत आनंद से ओत-प्रोत आचार्यश्री महाश्रमणजी की एक क्षण की पावन सन्निधि भी व्यक्ति के जीवन की अमूल्य धरोहर बन जाती है। अत्यधिक श्रम के बावजूद भी आपका मुखमंडल सदैव प्रसन्नचित्त रहता है। आपश्री के पवित्र आभामंडल में बैठने वाला सहज, शांति और आनंद का अनुभव करता है।
(4) अनुपम निर्लिप्तता-ब्रह्म बेला में पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री तुलसी की सन्निधि में सतजुगी (खेतसीजी) का प्रसंग चल रहा था। खेतसीजी हमारे धर्मसंघ में वे संत हैं जिनका उत्तराधिकार की परंपरा में नाम आ चुका है। लेकिन वे आचार्य नहीं बने। नियुक्ति पत्र में दो नामों का (खेतसीजी और रायचंदजी) उल्लेख किया गया था। परंतु रायचंदजी को आचार्य बनाया गया।
इस प्रसंग में आचार्यश्री तुलसी ने कहा-आज भी सतजुगी जैसे संतों की जरूरत है। उस समय मुनि मुदितकुमार जी ‘महाश्रमण’ पद से अलंकृत थे। उनका मौन मुखर हुआ। उन्होंने गुरुदेव से विनम्र निवेदन किया-गुरुदेव! आज भी तेरापंथ धर्मसंघ में सतजुगी जिंदा हैं। आपने असीम अनुकंपा करके मुझे ‘महाश्रमण’ पद से अलंकृत किया। आप चाहे तो आज ही मुझे इस पद से निलंबित कर सकते हैं। प्रश्न होता है-ऐसा कौन व्यक्ति कह सकता है? वस्तुतः ऐसा वही व्यक्ति कह सकता है, जो पूर्णरूपेण आत्मस्थ है। जिसकी अंतर-चेतना परम पवित्र, निर्मल, जागृत और निर्लिप्त है। जिसे न मान-सम्मान की चाह है, न पद की अभिप्सा। जिसके रोम-रोम में अध्यात्म बसा है।
आचार्यप्रवर बहुधा फरमाते हैं-पद मिलना बड़ी बात नहीं, मान-सम्मान मिलना बड़ी बात नहीं, आत्मा की पवित्रता बढ़े यह बड़ी बात है।
प्रभो! अनुत्तर संयम, अद्भुत विनय, अप्रतिहत आनंद एवं अनुपम निर्लिप्तता जैसी विशिष्टतम विशेषताएँ आपश्री के सहज स्वभाविक नैसर्गिक गुण हैं। किसी-किसी के लिए तो प्रयत्न करने पर भी ऐसे गुणों को प्राप्त करना दुर्लभ है, किंतु आपश्री में ये गुण पारिणामिक भाव से समाए हुए हैं। आपश्री के ये गुण सहज अनुचर बने हुए हैं। विभो! ये युग मेरे भीतर भी स्पर्श कर जाए। इन्हें मैं भी आत्मसात कर सकूँ और परम पूज्य गुरुदेव के इंगितानुसार संयम साधना करते हुए परम चित्त समाधिपूर्वक, आत्मकल्याण व आत्म विकास में प्रगति करती रहूँ ऐसा मुझे मंगल आशीर्वाद प्रदान करवाने की महती अनुकंपा कृपा दृष्टि कराएँ।

अभिनंदन उजले प्रभात का।
नूतन युग के सूत्रपात का।
पौरुष के मंगल प्रभात का।
नंदनवन के पारिजात है।।