निस्पृह चेतना आचार्य महाश्रमण
समणी भावितप्रज्ञा
आचार्यश्री महाश्रमणजी को कौन नही जानता। क्या सूर्य के प्रकाश से भी कभी कोई अपरिचित रह सकता है? महातपस्वी महाश्रमणजी प्रकाशपंुज है, वे स्वयं प्रकाशमान है और परिपार्श्व के वातावरण को भी प्रकाशमय बनाते हैं। पूज्यश्री का जीवन स्फटिक जैसा पारदर्शी है, जिसमें प्रत्येक मानव का वास्तविक स्वरूप साक्षात् प्रकट हो जाता है। कहते हैं रामकृष्ण परमहंस को ऐसे शिष्य की जरूरत थी जो उनकी आध्यात्मिक संपदा को सुरक्षित रख सके। उनकेे पास कुछ जादुई करिश्मे थे, फार्मुले थे। जब नरेन्द्र ने शिष्यत्व स्वीकारा तब उनकी क्षमताओं का आकलन करते हुये वह संपदा उन्हें देनी चाही पर नरेन्द्र ने रामकृष्णजी से कहा- ‘गुरुदेव! मुझे यश, नाम, प्रतिष्ठा नहीं चाहिए, मुझे तो अध्यात्म-शिखर तक पहुंचने का मार्ग दिखाओ।’ वही नरेन्द्र अध्यात्म पथ पर चलकर विश्व में विवेकानंद के रूप में विख्यात हुये।
आचार्यश्री तुलसी के पास जब मुनि मुदित शिष्य रूप में आये, तब गुरु तुलसी की पैनी नजरों ने मुनि मुदित की आन्तरिक क्षमताओं को देखा परखा, फिर एक दिन जनता के बीच प्रवचन में मुनि मुदित को आगे बुलाया ‘महाश्रमण’ पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। फिर गुरु तुलसी ने जनता से कहा- ‘हम जो काम करते हैं, चिंतनपूर्वक करते हैं, भावुकतावश किसी को आगे नहीं लाते। मैंने जो कुछ किया है वह पूरे विश्वास के साथ किया है।’ गुरुदेव ने यह भी फरमाया कि ‘महाश्रमण महीने की पहली तारीख उपवास व ध्यान में बिताता है। इसमें अनासक्ति, आध्यात्मिकता नैसर्गिक है, कूट-कूट कर भरी है। यश, ख्याति, नाम की कोई भूख नहीं है। सहजतामय जीवन जीता है। दायित्व का निवर्हन अच्छी तरह से करता है। मुझे संतोष है कि महाश्रमण अपने स्थान पर उपयुक्त है।’
युगप्रधान आचार्य महाश्रमणजी एक ऐसे गुरु हैं, जो स्वयं के साथ-साथ दूसरों का उपकार करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जंगलों-पहाड़ों में जाकर साधना करने वाले बहुत मिलेंगे लेकिन भौतिक आकर्षणों के बीच रहकर अनासक्त जीवन जीने वाले सद्गुरु महाश्रमण जैसे दुर्लभ है। जन-जन को यह अनुभूति है कि पूज्यश्री का अणु-अणु, रोम-रोम ज्ञानमय है, साधनामय है। वार्तालाप में अल्पभाषी पर अनुशासन में दृढ व दक्ष है। स्वयं अनुशासन का पालन करने के कठोर पक्षघर हैं। आचार व्यवहार में सात्विक, अति सहज होते हुए भी वे अपनी मर्यादा नियमों के प्रति बड़े जागरुक व अतिदृढ़ हैं। संस्कृत, प्राकृत जैसी प्राचीन भाषा पर आपका असाधारण अधिकार है। आपश्री ने अपनी प्रखर प्रतिभा व दृढ संकल्प के बल पर अंग्रेजी भाषा पर भी अधिकार प्राप्त किया। निस्संदेह आचार्य महाश्रमण उस प्रज्ञा का नाम है जोे अथाह आगम ज्ञान से जनता को अध्यात्म का गहन बोध दे रहे हैं। आचार्य महाश्रमण उस श्रम का नाम है जिसने सुविधावादी युग में भी अथक पुरूषार्थ से देश-विदेश में अहिंसा-यात्रा करके जन-जन का कल्याण किया है, कर रहे हैं। ऐसे युगप्रधान महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी के 50वें संयम-पर्याय के उपलक्ष में आगमवाणी से मंगल कामना करते हैं-
‘इहं मि उत्तमो भंते। पेच्चा होहिसि उत्तमो।
लोगुत्तमुत्तमं ठाणं, सिहिं गच्छसि नीरओ।।’
हे विश्वबंध युगदृष्टा श्री भैक्षवगण प्रतिपाल।
‘महाश्रमण’ जैसे गुरु मिले, हम सचमुच मालामाल।।