विशिष्ट मुनि का अवसान
समणी कुसुमप्रज्ञा
तेरापंथ के एक विशिष्ट व्यक्तित्व का नाम था- मुनि महेन्द्रकुमारजी। उनके जाने से श्रुत और शील संपन्न एक व्यक्तित्व की कमी हो गई। ज्ञान और विज्ञान में समन्वय करने वाले एक महान ज्ञानी और प्रयोगधर्मा व्यक्तित्व की क्षति हो गई। बहुश्रुत परिषद् के संयोजक का स्थान रिक्त हो गया। अध्यात्म और विज्ञान को सरसता के साथ पढ़ाने वाले प्राध्यापक का विलय हो गया। जैन विश्व भारती संस्थान को पुष्ट करने वाला कर्मशील व्यक्तित्व अग्रिम यात्रा पर प्रस्थित हो गया। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में अनुपम योगदान देने वाला मुनि अब दिखाई नहीं देगा। आगमों का कार्य करने वाले एवं भाष्य लेखक विशिष्ट मुनि की केवल यशः काया शेष रह गई। एक संघनिष्ठ और जुझारू व्यक्तित्व अदृश्य हो गया। पानी की रेखा के समान आवेश करने वाला मुनि इस दृश्य जगत् से अलविदा हो गया। उन्मुक्त हास्य करने और कराने वाला भिक्षु जय जिनेन्द्र कह गया। तीन-तीन आचार्यों का विशिष्ट कृपापात्र मुनि अंतर्धान हो गया। योगक्षेम वर्ष की व्यवस्थित संयोजना करने वाला अद्भुत प्रतिभा का धनी मुनि परलोक पधार गया। संक्षेप में कहंे तो शतावधानी, प्रखर वक्ता, गंभीर लेखक, ज्ञान पिपासु, प्रबल पराक्रमी, आत्मार्थी और सुदर्शन व्यक्तित्व का धनी एक विशिष्ट मुनि सबके दिलों में अपने गुणों की सुवास छोड़कर सदा के लिए इन्द्रधनुष की भांति विलीन हो गया। यों तो मुनि महेन्द्रकुमारजी स्वामी संघ के प्रायः सभी कार्यक्रमों से जुड़े हुए थे, लेकिन उनके कुछ विशिष्ट अवदान जिनसे कम लोग परिचित हैं, उन्हें मैं प्रकट करना चाहूंगी-
मुमुक्षु बहिनों पर उपकार
आचार्य तुलसी के निर्देश से सन् 1976 के आस-पास वे मुमुक्षु बहिनों की शिक्षा के प्रभारी बने। उस समय स्नातक वर्षीय जो कोर्स उन्होंने डिजायन किया, उनमें हम 21 बहिनों ने अध्ययन किया। उसी कोर्स की एक विशिष्ट उपलब्धि है- वर्तमान साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी। स्नातक के तीन वर्ष के कोर्स में हम लोगों ने पूरी अर्थ सहित नाममाला, पूरी प्राकृत व्याकरण (तुलसी मंजरी), पूरी कालू कौमुदी की साधनिका आदि का गहन अध्ययन कर लिया। तीन वर्षों में संस्कृत-प्राकृत के लगभग 50 ग्रंथ पढ़ लिए। उस समय उनका अनुशासन भले ही कठोर था, लेकिन व्यक्तित्व निष्पन्न करने वाला था।
समण श्रेणी का अध्यापन
आचार्य तुलसी ने जब समणश्रेणी का प्रवर्तन किया तो महेन्द्र मुनि को विशेष रूप से अध्यापन के लिए नियुक्त किया। आचार्य की अनुपस्थिति में साध्वियों या समणियों के अध्यापन से स्पष्ट है कि वे आचार्यों के कितने विश्वासपात्र थे। वे हमें अंग्रेजी में जैन सिद्धान्त दीपिका पढ़ाते थे तथा बाद में सबको अंग्रजी में बोलने का अभ्यास करवाते थे। अध्यात्म और विज्ञान की सैकड़ों कक्षाओं से समण श्रेणी लाभान्वित हुई है। रिसर्च के किसी भी विषय के बारे में पूछने पर उनका ज्ञान का स्रोत अविरल प्रवाहित होने लगता था।
संघनिष्ठ होकर उन्होंने संघ की जितनी सेवाएं कीं, आचार्यों ने भी उनका मूल्यांकन करने में कोई कमी नहीं रखी। उन्हें अनेक अलंकरणों से अलंकृत किया गया। इस अपूरणीय क्षति को अनेक संत मिलकर भी पूरा कर सकंे तो उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अंत में उनके कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और अध्यात्मयोग के प्रति प्रणत होते हुए उनके आध्यात्मिक विकास की मंगलकामना करती हूं।