आचार्य महाश्रमण की कृति

आचार्य महाश्रमण की कृति

साध्वी ख्यातयशा
वैशाख शुक्ला चतुर्दशी। आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रातःकाल ही सूचना दी थी कि आज मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में नई साध्वीप्रमुखा की नियुक्ति करने का यथासंभवतया भाव है। हर मुख पर एक ही प्रश्न-आचार्यप्रवर किसे नवम् साध्वीप्रमुखा के रूप में मनोनीत करेंगे। सर्वत्र हलचल। विशेष रूप से साध्वियों के स्थान पर हलचल। संपूर्ण वातावरण ही बन गया चंचल। सारी साध्वियाँ एक ही कार्य में व्यस्त। किस प्रकार करें। नवम् साध्वीप्रमुखा का अभिनंदन? अनेक कार्यों का एक साथ संपादन। अभिनंदन पत्र की साज-सज्जा तथा लेखन। गीत निर्माण तथा गायन, नई पछेवड़ी, प्रमार्जनी तथा नव रजोहरण का व्यवस्थिकरण, मनोनयन के पश्चात् नव साध्वीप्रमुखाजी का स्थान पर कैसे करेंगे स्वागत और अभिनंदन। हर साध्वी के मन में एक ही उमंग अद्वितीय तरीका हो स्वागत का। कार्यक्रम में कहीं विलंब से न पहुँचे इसलिए सारी साध्वियों के मस्तिष्क मानो मशीन की तरह कार्य करने लग गए। नई कल्पना व नई योजना के साथ साध्वियाँ सरदारशहर, तेरापंथ भवन में पहुँचीं। संपूर्ण प्रांगण खचाखच भरा हुआ था। हजारों नयन उस दृश्य को देखने के लिए लालायित थे। वे अपलक आचार्यप्रवर को निहार रहे थे। वे आचार्यप्रवर की दृष्टि, इंगित तथा भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे, पर असमर्थता का अनुभव कर रहे थे।
आचार्यप्रवर ने मनोनयन पत्र को हाथ में लिया, लोग उत्कर्ण हो उठे। आचार्यप्रवर ने फरमाया-हमारा धर्मसंघ विशाल है, उसमें पाँच सौ से अधिक साध्वियाँ हैं। उनमें से एक नाम घोषित करना है मैं अपना मानसिक निर्णय आपके सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
अर्हम्
श्री भिक्षु भारीमाल रायचंद्र जयजस मघवा माणक डालचंद कालू तुलसी महाप्रज्ञ गुरुभ्यो नमः। आज वैशाख शुक्ला चतुर्दशी, विक्रम संवत् 2078 रविवार, दिनासंक 15 मई, 2022 के दिन मैं साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी के स्थान पर साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी को नियुक्त करता हूँ। उन्हें साध्वीप्रमुखा मनोनीत करता हूँ।
जय-जय ज्योतिचरण-जय-जय महाश्रमण की ध्वनि से संपूर्ण सरदारशहर भवन का प्रांगण तरंगित हो उठा और उसकी गूँज देश-विदेश तक पहुँच गई। आचार्यश्री की एक घोषणा हजारों प्रश्नों को समाहित करने वाली थी। वह घोषणा हजारों मन को आश्वस्त करने वाली थी। वह घोषणा हजारों व्यक्तियों के विश्वास को विश्वस्त करने वाली थी। मेरे मन में एक जिज्ञासा अवशेष रह गई कि आचार्यप्रवर ने अपने दीक्षा दिवस को ही साध्वीप्रमुखा मनोनयन दिवस के रूप में क्यों चुना?
गुरु अंतर्यामी होते हैं। उन्होंने प्रथम दिन से ही मुझे समाधान की दिशा प्रदान कर दी। आचार्यश्री ने अद्भुत और अद्वितीय तरीके से साध्वीप्रमुखाजी का मनोनयन किया। उन्होंने अपनी ऊर्जा से परिपूरित रजोहरण तथा प्रमार्जनी नव निर्वाचित साध्वीप्रमुखाजी को प्रेषित किया। बहुत साध्वियों ने नया रजोहरण तथा प्रमार्जनी प्रदान करवाए, ऐसा निवेदन किया, पर आचार्यप्रवर अपने निर्णय पर अडिग थे। कुछ दिनों पश्चात् आचार्यप्रवर ने प्रवचन में फरमाया कि साध्वीप्रमुखाजी, मुख्यमुनि तथा साध्वीवर्या अब तीनों मेरे द्वारा नियुक्त हैं अर्थात् आचार्यप्रवर की ही कृतियाँ हैं। उस दिन मेरे मन का वह प्रश्न समाहित हो गया। साध्वीप्रमुखाजी आचार्यप्रवर की अपनी ही कृति है अतः आचार्यप्रवर ने अपना रजोहरण, प्रमार्जनी ही नहीं अपितु अपना दीक्षा दिवस भी मनोनयन दिवस के रूप में तथा अपनी जन्मभूमि को भी मनोनयन भूमि के रूप में साध्वीप्रमुखाजी को प्रदान कर दी। आचार्यश्री ने केवल साध्वीप्रमुखाजी को बनाया ही नहीं, अपितु प्रतिष्ठित भी किया।
जिस प्रकार एक बागवाँ बीज बोने के बाद उसे खाद, पानी आदि से सिंचन देता है, उसका संरक्षण करता है। तभी वह बीज पल्लवित, पुष्पित होकर वृक्ष का रूप लेता है। उसी प्रकार सरदारशहर के पश्चात् जिन-जिन श्रद्धा के क्षेत्रों में आचार्यप्रवर पधारते। उस दिन प्रवचन में प्रायः फरमाते-साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी के महाप्रयाण के बाद साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी का प्रथम स्थान है, सर्वोपरि स्थान है। ये हमारे कार्यक्षेत्र से जुड़ी हुई हैं, व्याख्यान भी देती है, साध्वियों की सार-संभाल भी कर रही है। बहुत अच्छे से सेवा देती रहे, स्वाध्याय अच्छा रहे।
आचार्यप्रवर ने केवल साध्वीप्रमुखाजी को प्रतिष्ठित ही नहीं किया, बल्कि उनकी हर इच्छा का भी ध्यान रखते हैं। उन्होंने किसी संदर्भ में कुछ कह दिया तो उनकी बात को बहुमान भी देते हैं। एक दिन मध्याह्न में साध्वीप्रमुखाजी ने आचार्यप्रवर से पूछा कि आचार्यप्रवर के यात्रा पथ में सौराष्ट्र कब आ रहा है? आचार्यप्रवर ने फरमाया-साध्वीप्रमुखाजी ने पहले भी फरमाया था और आज फिर जिज्ञासा प्रस्तुत की है। हमें पालीताणा तथा गिरनार इन दोनों को सूरत या अहमदाबाद चातुर्मास से पहले या बाद में लेने का प्रयास करता है। इसके लिए भले कच्छ में अल्प समय लगाना पड़े। इसके लिए भले बाव तथा सिद्धपुर छोड़ना पड़े। गांधीधाम और भुज में 7-8 दिन ही देना पड़े। पालिताणा और गिरनार-दोनों को स्पृष्ट करने का प्रयास करना है। हम केवल भुज में मर्यादा महोत्सव से बंधे हुए हैं। शेष स्थानों में कितना समय लगाना हमारे हाथ में है और संभव हो सके तो नक्शा आदि की सहायता से सूरत से अहमदाबाद तक, अहमदाबाद से छोटी खाटू तक और मुंबई मर्यादा महोत्सव से सूरत तक की मोटा-मोटी रूप में यात्रा हमें अवगत करा दें।
चाहे चातुर्मास हो या विहार, सर्दी हो या तीक्ष्ण गर्मी या बरसात का मौसम। साध्वीप्रमुखाजी प्रायः महीने में सात उपवास करते हैं। एक दिन मध्याह्न की सेवा के समय आचार्यप्रवर ने फरमाया-साध्वीप्रमुखाजी ‘महीने में 7 उपवास करते हैं, इसमें कटौती की जा जाए तो कैसा रहे! उपवास के संदर्भ में साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के लिए यह हनपकमसपदम दी जा रही है। माघ कृष्णा एकम् से आषाढ़ शुक्ला एकम् इन छह महीनों में शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष की अष्टमी को उपवास नहीं करना चाहिए। अतः महीने में पाँच उपवास हो तो ठीक है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में चार विगय वर्जन करे तो अनुकूल लग रहा है। सात या पाँच उपवास करने भी जरूरी नहीं हैं। अनुकूलता का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
22 जुलाई, छापर में, आचार्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखाजी को बख्शीश करते हुए फरमाया-साध्वीप्रमुखाजी को हमेशा के लिए आलोयणा के उपवास करने से सादर मुक्त किया जा रहा है तथा चार दवाई की भी विगय बख्शीश की जा रही है। एक दिन आचार्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखाजी का समय नियोजन करवाते हुए फरमाया-सामान्यतया सूर्योदय से दिन के लगभग तीन बजे के बीच में जितना समय उपलब्ध हो जाए वह पण्णवणा के कार्य में तथा दिन के तीन बजे के ठीक बाद से फिर सूर्योदय तक जितना समय उपलब्ध हो जाए वह आचार्य महाप्रज्ञ के इतिहास लेखन में लगाना चाहिए। सामान्यतयाः यथासंभव इस प्रकार समय का विभाजन रखना चाहिए।
1 अगस्त, छापर में आचार्यप्रवर की सन्निधि में दो छोटी साध्वियों की तपस्या चल रही थी। उन दोनों साध्वियों की गुरुदेव से संदेश लेने की इच्छा थी, पर उस समय साध्वियों को तपस्या का संदेश देना बंद था। दोनों साध्वियों ने साध्वीप्रमुखाजी को गुरुदेव के संदेश के लिए निवेदन किया। प्रमुखाश्री जी ने आचार्यप्रवर को संदेश के लिए निवेदन किया। साध्वीप्रमुखाजी की बात रखने के लिए आचार्यप्रवर ने उन दोनों साध्वियों को संदेश दे दिया।
तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य सर्वेसर्वा होते हैं। वे सर्वाधिक संपन्न होते हैं तो सर्व दायित्व संपन्न भी होते हैं। धर्मसंघ में दीक्षित हर चारित्रात्मा की सेवा, स्वास्थ्य तथा चित्त समाधि के दायित्व का भार आचार्यप्रवर के कंधों पर रहता है। ऐसे व्यस्ततम समय में भी आचार्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखाजी के संदर्भ में साध्वियों को छोटी सी छोटी बात सिखाई। आचार्यप्रवर ने प्रायोगिक रूप में हर छोटी बात का प्रशिक्षण दिया।
साध्वीप्रमुखा मनोनयन के दूसरे दिन 16 मई प्रातःकाल में आचार्यप्रवर ने फरमाया-साध्वीप्रमुखाजी के स्वास्थ्य के लिए परिचारक वर्ग की मुखिया साध्वी मुदितयशा जी ध्यान रखें। पथ्य परहेज दवा आदि कोई व्यवस्था हो, उसे समायोजित करने में तत्परता रखें।
18 मई, साध्वीप्रमुखाजी वंदनार्थ आचार्यप्रवर के स्थान पर पधारीं। वंदना के पश्चात् आचार्यश्री ने छोटी साध्वी को संबोधित करते हुए फरमाया-देखो, इस समय तीन कार्य करने होते हैं। चरणों में गिदली लगाना, साध्वीप्रमुखाजी के हाथ से ओघा लेना तथा कुर्सी पर लुंकार लगाना। इनमें कौन-सा पहले करना चाहिए? पहले चरणों में गिदली लगानी चाहिए, फिर प्रमुखाजी के हाथ से ओघा लेना तथा उसके बाद कुर्सी पर लुंकार लगाना चाहिए। अथवा एक साध्वी गिदली लगाए तथा दूसरी
साध्वी साध्वीप्रमुखाजी के हाथ से ओघा ले सकती है।
19 मई, उपवास के दूसरे दिन साध्वीप्रमुखाजी वंदनार्थ पधारे। आचार्यप्रवर ने फरमाया कि ‘काल उपवास जणा आज पारणो हुंसी? अठै ही पारणो कर लो भले’। प्रमुखाजी ने निवेदन किया-नवकारसी है। आचार्यप्रवर ने फरमाया-‘सतियाँ ध्यान दे लेसी अठूं ही कोई व्रत निपजा लेसी’।
20 मई, मध्याह्न की चिलचिलाती धूप, तीव्र लू के थपेड़े। साध्वीप्रमुखाजी आदि साध्वियाँ आचार्यप्रवर के उपपात में पहुँची। वाचन आदि कार्य संपन्न होने पर आचार्यप्रवर ने पूछा-साध्वीप्रमुखाजी को पानी पिला दिया क्या? साध्वियाँ-तहत्! आचार्यप्रवर-कहाँ से पिलाया। साध्वियाँ-तुम्बे से (तुम्बाल पेटा हुआ है)। आचार्यप्रवर-ये पानी तो गर्म हो गया होगा। एक काम किया करो हमारे यहाँ तो भटकी रहती है, इसका व्रत निपजा दिया करो। मध्याह्न में पधारते समय दो बातों का ध्यान रखना चाहिए। स्थान से निकलने से पहले पानी पिलाना तथा सिर पर लुंकार ढककर पधारे।
एक दिन विहार के पश्चात् साध्वीप्रमुखाजी वंदनार्थ पधारे। पाक्षिक संबोध के मध्य आचार्यप्रवर ने साध्वियों को शिक्षा फरमाई कि पद का सम्मान होना चाहिए। साध्वीप्रमुखाजी का भी सम्मान करना चाहिए। उनको धर्मास्तिकाय की तरह हाथ का सहारा देना चाहिए। वे सहारा ले या न ले। हमें उनको सहारा देना चाहिए।
छापर चातुर्मास में साध्वियों के स्थान अलग-अलग थे। आचार्यप्रवर साध्वियों के स्थान पर पधारे। संयोग से साध्वीप्रमुखाजी वहीं पर थे। जल्दबाजी में सतियों ने साध्वीप्रमुखाजी के लिए बिना साइड के सहारों वाली कुर्सी लगा दी। वे उस पर बैठने लगीं तो आचार्यश्री ने सतियों को सुविधाजनक कुर्सी लाने के लिए फरमाया। साध्वीप्रमुखाजी ने निवेदन किया-मेरा संतुलन ठीक है मैं उस पर आराम से बैठ सकती हूँ, ऐसा कहकर बैठ गईं। कुछ देर बाद आचार्यप्रवर को कुछ निवेदन करने के लिए उस कुर्सी से उठकर थोड़ा आगे पधारीं तो आचार्यप्रवर ने सतियों को इंगित कर कुर्सी बदलवा दी।
14 सितंबर, विहार के पश्चात् साध्वीप्रमुखाजी वंदनार्थ आचार्यप्रवर के स्थान पर पधारे। उस दिन आचार्यप्रवर के कक्ष में टांटिये उड़ रहे थे। आचार्यप्रवर ने परिचारिका साध्वी को फरमाया-देखो, यहाँ (साध्वीप्रमुखाजी के पास) खड़ी हो जाओ, टांटिये आ रहे हैं, उन्हें उड़ाने का ध्यान रखो।
साध्वीप्रमुखा मनोनयन का ये एक संवत्सर ऐसे अनेक संस्मरणों से सराबोर है।
यह वर्ष गुरु की अनहद कृपा के अमृत आस्वादन का था।
यह वर्ष दायित्व बोध के दुर्लभ क्षणों का अमिट दस्तावेज है।
आचार्यप्रवर की पारखी नजरों से निखरा हुआ यह कोहिनूर साध्वीगण को अमिट प्रकाश प्रदान कर रहा है।
एक संवत्सर का यह सुनहरा सफर प्रेरणादीप बनकर सदा साध्वी समुदाय का मार्ग आलोकित करता रहेगा।
तेरापंथ के साध्वीप्रमुखा के महिमा मंडित पद को सुशोभित करने वाली नवम् साध्वीप्रमुखा को अंतहीन अभिवंदना।
कोटि-कोटि वंदना।