अप्रतिम आत्मसाधिका साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा
अप्रतिम आत्मसाधिका साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा
तेरापंथ के भाग्यविधाता आचार्य महाश्रमण ने लगभग 1 वर्ष पूर्व धर्मसंघ को नवमी साध्वीप्रमुखा का उपहार दिया। प्रथम मनोनयन दिवस के अवसर पर साध्वीप्रमुखा की अभ्यर्थना करती हूँ। सांसारिक जीवन में व्यक्ति समृद्धि बढ़ाने के लिए हीरा, पन्ना आदि रत्नों का संचय करता है। जिसके पास एक बहुमूल्य रत्न होता है वह भी बहुत खुश हो जाता है, अमीर बन जाता है, आपके पास मैंने बहुत सारे बहुमूल्य रत्न देखे हैं, जिनकी सुरक्षा आप पूर्ण जागरूकता से कर रही हैं। उन रत्नों में तीन विशिष्ट रत्न हैं-आत्मनिष्ठा, आत्म-प्रसन्नता और आत्मकौशल।
आत्मनिष्ठा: दुनिया में दो तरह के व्यक्ति होते हैं-(1) आत्मकेंद्रित, (2) परकेन्द्रित। सामान्य स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण परकेन्द्रित (पदार्थ केंद्रित) होता है। वे लोग पदार्थ की प्राप्ति में अपना चिंतन, क्रिया व शक्ति लगाते हैं। पदार्थ की प्राप्ति न होने पर वे विचलित हो जाते हैं, बेचैन हो जाते हैं। उनकी चेतना पदार्थ के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन जो असाधारण व्यक्ति होते हैं वे आत्मा के स्तर पर जीते हैं। आत्मकेंद्रित होते हैं, आपके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का प्रथम रत्न है-आत्मनिष्ठा। मुझे वर्षों से आपकी निकट सेवा का सौभाग्य प्राप्त है। आपका हर कार्य चाहे उठना, बैठना, चलना, सोना व खाना-पीना आदि कोई भी प्रवृत्ति हो, प्रत्येक प्रवृत्ति में आप भीतर से जितने जागरूक हैं, उतने बाहर से भी हैं, मेरी कहीं आत्मा की चादर मैली न हो जाए, कोई दोष न लग जाए। आचार्य महाप्रज्ञ जी एक बार (बीदासर भवन) में प्रातःराश के पश्चात् टहला रहे थे। मैंने उनके चरणों के नीचे दो लुंकार बिछाए। टहलाते-टहलाते पूछा-बताओ! दोनों में क्या अंतर है? मैंने रंग आदि के आधार पर अपनी अल्पबुद्धि से उत्तर दे दिया। आचार्यप्रवर ने फिर मुस्कुराते हुए फरमाया-देखो! एक में सलवटें हैं, दूसरे में नहीं। वह राग का लुंकार है, जिसमें सलवटें हैं, दूसरा वीतराग का, जिसमें सलवटें नहीं हैं। जिसके बाहर में सलवटें हैं, उसके भीतर में तो होंगी ही। बताओ! ये किसका लुंकार है। मैंने निवेदन किया-जिसमें सलवटें नहीं हैं वो मुख्य नियोजिका का है व अन्य मेरे निश्रा का है।
आचार्य महाप्रज्ञ जी ने बात-बात में बोध दे दिया तथा साध्वीप्रमुखाश्री जी के साधनापरक व्यक्तित्व को परखकर मानो वीतरागता का आशीर्वाद प्रदान कर दिया। सचमुच आपका हर कदम वीतरागता की दिशा की ओर उन्मुख है। आपकी अनन्य आत्मनिष्ठा की प्रांजल प्रणतिमय अभिवंदना। आत्मप्रसन्नता: आपके व्यक्तित्व की आभा को शतगुणित करने वाला दूसरा रत्न है-आत्मप्रसन्नता। प्रसन्नता साधक की पहचान है। जो व्यक्ति प्रसन्नत है। वह दूसरों की अपेक्षा स्वस्थ है। व्यक्ति को इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर अप्रसन्न हो जाता है। प्रसन्नता व्यक्ति व वस्तु सापेक्ष होने से खंडित हो जाती है। जो व्यक्ति निरपेक्ष होता है, वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रसन्न रहता है। विचलित नहीं होता है। उसकी प्रसन्नजा अखंड रहती है।
आपके जीवन के बारे में सुना है, देखा है, अनुभव भी किया है, किसी भी तरह की परिस्थिति में आपको उत्तेजित नहीं किया। लगता है परिस्थिति का सामना करना व उससे बाहर निकलना यह गुर आपको जन्मघुट्टी से मिला है। क्योंकि आप स्वयं अनुशासनप्रिय हैं और सकारात्मक है। आप किसी घटना व विवादास्पद प्रसंग आने पर उदास व खिन्न नहीं होते हैं। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं। चाहे सिलीगुड़ी में अलग चतुर्मास का प्रसंग आया अथवा पुनः गुवाहाटी में गुरुकुलवास का अवसर मिला-दोनों ही वक्त आपका संतुलन व प्रसन्नता हमारे लिए प्रेरणास्पद है। आपकी अविराम आत्मप्रसन्नता को श्रद्धासिक्त अभिवंदना। आत्मकुशलता: आपके योगमय व्यक्तित्व को सँवारने वाला तीसरा रत्न है-आत्मकुशलता। सम्यक् पुरुषार्थ कुशलता को हासिल करने का मापदंड है। ज्ञानयोग, भक्तियोग व कर्मयोग तीनों योगों में आपके पुरुषार्थ का योग महत्त्वपूर्ण है।
आपका पुरुषार्थ आत्मपवित्रता की दिशा में गतिशील है। प्रायः ब्रह्ममुहूर्त में स्वाध्याय का क्रम शुरू होता है, वह रात्रि लगभग 10-11 बजे तक चलता है। प्रायः प्रतिदिन ब्रह्म बेला में आप ‘आचारांग भाल्यम्’ का चिंतन, मनन और निदिध्यासन पूर्वक साध्वियों को स्वाध्याय करवाते हैं। भाष्य सहित वाचना देते हैं। उस समय आप ऐसे तल्लीन हो जाते हैं कि लगता है आत्मा के आस-पास हो। हम भी उन पलों में आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि समय का पता ही नहीं चलता। ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप मोक्षमार्ग के चार साधन हैं। आपने चारों क्षेत्र में पुरुषार्थ का दीप प्रज्ज्वलित किया है और उसके अलौकिक आलोक से स्वयं को निरंतर आलोकित कर रहे हैं। चाहे साध्वी समाज हो या श्रावकों को संभालना और समय देना हो, इसमें आपका समय, शक्ति व श्रम आपके आत्म-कौशल को प्रदिर्शत करता है। स्व-आत्मा-कौशल को विकसित करने में योजित आपका पौरुष अभिलषणीय है। आप निश्चय और व्यवहार के संतुलन के प्रतीक हैं।
आपके आदर्श आत्मकौशल की आस्थामय अभिवंदना। अस्तु! आत्मप्रज्ञा की आराधिका साध्वीप्रमुखाश्री जी के प्रथम मनोनयन दिवस पर हृदय की अनंत गहराइयों से अभिवंदना। आपके नेतृत्व में साध्वी समाज में भी आत्मनिष्ठा, आत्मप्रसन्नता और आत्मकुशलता का दरिया निर्बाध गति से लहराता रहे। आप चिरायु हों, निरामय रहें, मंगलकामना।