मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

एकत्व भावना
आदमी अपने बाहरी वातावरण में अकेला नहीं है। वह सामुदायिक जीवन जीता है और सबके बीच में रहता है किंतु वह सब बातों में सामुदायिक नहीं है। सामुदायिक जीवन के प्रवाह से आने वाली समस्याओं से अपने मन को खाली वही रख सकता है, जिसे व्यावहारिक संबंधों के बीच अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है। जिसे अपने स्वतंत्र अस्तित्व की अनुभूति होती है, वह बाहरी समस्याओं का सामना करते हुए भी अपने अंतस् में समस्या से मुक्त रहता है। बाहर के वातावरण में समुदाय के बीच में रहते हुए भी वह अंतस् में अकेला रहता है और बाहरी जीवन में व्यस्त रहते हुए भी अंतस् में व्यस्तता से मुक्त रहता है।

अन्यत्व (विवेक) भावना
मनुष्य का सबसे निकट संबंध शरीर से होता है। शरीर और आत्मा में भेदानुभूति नहीं होती। जो शरीर है वह मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह शरीर है-इस अभेदानुभूति के आधार पर ही मनुष्य के ममत्व का विस्तार होता है। सम्यक् दर्शन का मूल अन्यत्व भावना है। इसे विवेक भावना या भेदज्ञान भी कहा जाता है। शरीर और आत्मा की भिन्नता की भावना पुष्ट होने पर मोह की ग्रंथि खुल जाती है। सहज ही मन स्थिर हो जाता है। इसीलिए पूज्यपाद ने इस भावना को तत्त्वसंग्रह कहा है-जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः।

अशौच भावना
पुद्गलों के बाहरी संस्थान का सौंदर्य देखकर उनमें मन आसक्त हो जाता है। चमड़ी के भीतर जो है, वह आकर्षक नहीं है। बाहरी संस्थान के साथ आंतरिक वस्तुओं का बोध करना-उन्हें साक्षात् देखना अनासक्ति का हेतु है। प्राणी के शरीर में रहने वाले अशुचि पदार्थ, मृत शरीर की दुर्गन्ध आदि का योग होने पर मूर्च्छा का भाव क्षीण हो जाता है।
आस्रव-संवर भावना
बाहर से कुछ लेना, उसे संचित करना, उससे प्रभावित होना और उसके अनुरूप अपने आपको ढालना-ये सब आश्रव की प्रक्रियाएँ हैं। यही मानसिक चंचलता की प्रक्रिया है। संवर की क्रिया इसकी प्रतिपक्ष है। बाहर से कुछ भी लिया नहीं जाएगा तो उससे प्रभावित होने की परिस्थिति ही उत्पन्न नहीं होगी। इस स्थिति में मानसिक स्थिरता अपने आप हो जाती है।

निर्जरा भावना
विजातीय द्रव्य संचित होता है तब शरीर अस्वस्थ बनता है। उसके निकल जाने पर शरीर स्वयं स्वस्थ बन जाता है। बाहरी संचय का निर्जरण होने पर मानसिक चंचलता के हेतु अपने आप समाप्त हो जाते हैं। निर्जरा का हेतु तपस्या है। जो साधक तपस्या का अर्थ नहीं जानता, वह ध्यान का मर्म नहीं जान सकता।

धर्म भावना
धर्म आत्मा का सहज परिणमन है। निमित्त मिलता है, क्रोध उभर आता है किंतु कोई भी आदमी प्रतिक्षण क्रोध नहीं करता और कर भी नहीं सकता। क्षमा प्रतिक्षण की जा सकती है क्योंकि वह उसका सहज रूप है।
ऋजुता हर क्षण में हो सकती है किंतु माया का आचरण हर क्षण में नहीं होता। धर्म की भावना का अर्थ है-आत्मा के स्वाभाविक रूप की खोज करना। इसमें इंद्रियाँ अंतर्मुखी हो जाती हैं और मन अपने अस्तित्व के मूल प्रवाह में विलीन हो जाता है।

लोक-संस्थान भावना
यह लोक विविधताओं की रंगभूमि है। इसमें अनेक संस्थान और अनेक परिणमन हैं। उन सबमें एकत्व या समत्व की अनुभूति कर घृणा, अभिमान और हीन भावना पर विजय पाई जा सकती है। समत्व की साधना के लिए इस भावना के अभ्यास का बहुत महत्त्व है।

बोधिदुर्लभ भावना
बोधि के तीन प्रकार हैं-ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि। सहजतया मनुष्य का आकर्षण ऐश्वर्य और सुख-सुविधा में होता है, किंतु वे ही दुःख के हेतु बनते हैं, इस स्थिति को मनुष्य भुला देता है। प्रस्तुत भावना में मनुष्य के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित होता है। इस जगत में दुर्लभ क्या है? धन-संपदा और सुख-सुविधा वस्तुतः दुर्लभ नहीं हैं। दुर्लभ है मानसिक शांति। वह धन-संपदा और सुख-सुविधा से प्राप्त नहीं होती किंतु सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दृष्टिकोण और सम्यग्चारित्र के द्वारा प्राप्त होती है।
मन की शांति का हेतु बोधि है। कारण प्राप्त होने पर कार्य की सिद्धि सहज हो जाती है। बोधि प्राप्त होने पर मन की शांति का प्रश्न जटिल नहीं होता।
दूसरे वर्गीकरण में चार भावनाओं का उल्लेख है-(1) मैत्री, (2) प्रमोद, (3) कारुण्य, (4) माध्यस्थ।

मैत्री भावना
पैर में काँटा चुभा हुआ है। सर्दी की रात है। उसकी चुभन बरबस ध्यान खींच लेती है। शत्रुता भी एक काँटा है। स्मृति उनके लिए सर्दी की रात है। जब-जब स्मृति आती है, तब-तब मानसिक चुभन प्रखर हो उठती है। दूसरे को शत्रु मानने वाला, जिसको वह शत्रु मानता है, उसका अनिष्ट कर पाता है या नहीं कर पाता किंतु अपना अनिष्ट अवश्य कर लेता है। मैत्री की भावना का यह प्रबल आधार है। शत्रु की याद आते ही मानसिक प्रसन्नता विषाद में बदल जाती है। इसलिए समझदार व्यक्ति किसी को शत्रु मानकर अपने मन को कलुषता के दलदल में कैसे फाँसना चाहेगा?
सबके प्रति आत्मीय या पारिवारिक भावना होने पर मन प्रफुल्ल रहता है। उसे किसी से भी भय नहीं होता। शत्रुता और भय, मैत्री और अभय-ये दो युगल हैं। जिसका मन भय से भरा होता है, वही दूसरे को शत्रु मानता है। जिसके मन में भय नहीं होता, वह अनिष्ट करने वाले को अज्ञानी मान सकता है किंतु शत्रु नहीं मानता। सब जीवों के हित-चिंतन का बार-बार अभ्यास करने से मैत्री का संस्कार पुष्ट होता है।

प्रमोद भावना
ईर्ष्या उस व्यक्ति के मन में पैदा होती है जिसे आत्मिक समानता में विश्वास नहीं होता। जो मानता है कि हर आत्मा समान है, हर आत्मा में अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद और अनंत शक्ति है, हर आत्मा को विकास करने का अधिकार है और हर आत्मा उसका विकास कर सकती है, वह व्यक्ति दूसरे का विकास देखकर ईष्यालु नहीं होता किंतु प्रसन्न होता है। ईर्ष्या नास्तिकता का चिÐ है। क्या आत्म-निष्ठ व्यक्ति आत्म-विकास पर एकाधिकार मान सकता है?
दूसरे के विकास को नकारने का अर्थ गुणों की श्रेष्ठता को नकारना है। यदि गुणों की अच्छाई में हमारा विश्वास है तो वे किसी में भी प्रकट हुए हों, हमारे लिए अभिनंदनीय हैं। इस चिंतन की पुष्टि से मानसिक हर्ष निश्छिद्र और अव्यवच्छिन्न बन जाता है।

कारुण्य भावना
सुदूर क्षितिज मे बिजली का कौंधना देखकर हमें बादलों के अस्तित्व का बोध हो जाता है। इसी प्रकार अंतःकरण में करुणा का प्रवाह देखकर हम जान पाते हैं कि अमुक व्यक्ति में सत्य की जिज्ञासा है। उसे सत्य का कुछ साक्षात् हुआ है और उसका दृष्टिकोण समीचीन है। क्रूरता का विसर्जन किए बिना कोई भी आदमी सत्य की दिशा में गतिशील नहीं हो सकता। इस अनुभूति की तीव्रता के द्वारा मनुष्य में करुणा का संस्कार सुदृढ़ हो जाता है।

माध्यस्थ्य भावना
किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति अनुरक्त होने और उससे भिन्न वस्तु या व्यक्ति के प्रति द्विष्ट होने का अर्थ पक्षपात है। पक्षपात यानी विषमता। राग और द्वेष से होने वाले अन्याय के परिणामों को समझे बिना क्या कोई भी व्यक्ति मानसिक झुकाव से बच सकता है?
कोई व्यक्ति उन्मार्ग की ओर जा रहा है। उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करना कर्तव्य है किंतु बल-प्रयोग के द्वारा उस कर्तव्य की पालना नहीं हो सकती। हृदय-परिवर्तन का प्रयत्न करने पर भी यदि सामने वाला व्यक्ति उन्मार्ग से विमुख नहीं होता तो उसके लिए प्रतीक्षा ही की जा सकती है किंतु क्रोध करके अपने मन को धूमिल और परिस्थिति को जटिल बनाना समुचित नहीं हो सकता। उलझन-भरी परिस्थिति व वातावरण में अपने मानसिक संतुलन को बनाए रखने का अभ्यास करने, न्याय के प्रति दृढ़ निष्ठा होने तथा हृदय-परिवर्तन के सिद्धांत मे आस्था होने से मध्यस्थता का संस्कार सुस्थिर होता है।

कषाय
क्रोध, अभिमान, माया और लोभ-इन चारों को एक शब्द में कषाय कहा जाता है। इनके द्वारा मन रंजित होता है-अपनी सहज साम्यपूर्ण स्थिति को खोकर इनके रंग में रंग जाता है। इसलिए इन्हें कषाय कहना सर्वथा उपयुक्त है। कषाय के द्वारा मानवीय गुण विनष्ट होते हैं। जैसे-
(1) क्रोध से प्रेम, (2) अभिमान से विनय, (3) माया से मैत्री, (4) लोभ से सर्वगुण।
इन्हें बल-प्रयोग से नहीं मिटाया जा सकता। इन पर विजय पाने के लिए प्रतिपक्ष भावना का आलंबन लेना उपयोगी होता है। उपशम (शांति) की भावना को पुष्ट करने-उपशम के विचार को बार-बार दोहराने से क्रोध सहज ही नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार मृदुता की भावना को पुष्ट करने से अभिमान, ऋजुता की भावना को पुष्ट करने से माया और संतोष की भावना को पुष्ट करने से लोभ सहज ही विनष्ट हो जाता है।
भावना का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट प्रक्रिया से करना इष्ट-सिद्धि में अधिक सहायक हो सकता है। साधक पद्मासन आदि किसी सुविधाजनक आसन पर बैठ जाए। पहले श्वास को शिथिल करे। फिर मन को शिथिल करे। पाँच मिनट तक उन्हें शिथिल करने के लिए सूचना देता जाए। वे जब शिथिल हो जाएँ तब उपशम आदि पर मन को एकाग्र करे। इस प्रकार निरंतर आघा घंटा तक अभ्यास करने से पुराने संस्कार विलीन हो जाते हैं और नए संस्कारों का निर्माण होता है। इस प्रकार का अभ्यास वैयक्तिक रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक रूप में भी कराया जा सकता है।

(क्रमशः)