संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद
 
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
 
(8) लब्ध्वा मनुष्यतां धर्मं, शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः।
वीर्यं स च समासाद्य, धुनीयाद् दुःखमर्जितम्।।
 
धर्म-श्रुति
(क्रमशः)  धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ है। मनुष्य जीवन एक सांयोगिक घटना भी हो सकती है, किंतु  यह कुछ प्रयत्न साध्य है। जीवन के समस्त संस्कार एक पथगामी रहे हैं। धर्म-श्रवण-यह एक दूसरा आयाम है। धर्म के नए संस्कार को उद्भुत करने में पुराने संस्कार चट्टानों का काम करते हैं। वे सदा से प्रिय रहे हैं और यह सर्वथा अनजाना, अप्रिय और रसहीन। इंद्रियों के संस्कार पुनः-पुनः अपनी ओर खींचते रहते हैं। आचार्य कुंदकुद ने समयसार में लिखा है-कामभोग से संबंधित बातें सबकी सुनी हुई हैं, परिचित हैं और अनुभूत हैं, लेकिन भिन्न आत्मा का एकत्व न श्रुत है, न परिचित है और न अनुभूत है, इसलिए वह सुलभ नहीं है।
धर्म का अर्थ है-स्वभाव। स्वभाव का स्वाद जिसने चखा है, वहीं स्वभाव की सुगंध मिल सकती है। जिसने स्वभाव में डूबने का प्रयास भी नहीं किया, वहाँ स्वभाव की बात हो सकती है किंतु जीवंत दर्शन नहीं। कहा है कि ‘अप्रियस्य च सत्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः’ ऐसे वक्ता और श्रोता का मिलना संभव नहीं, किंतु कठिन है, जो अप्रिय सत्य कहने में न हिचकता हो।
धर्म-श्रवण यात्रा-प्रारंभ का केंद्र है। श्रवण पर सबने बल दिया है। ‘श्रोतव्यः, मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः’ में श्रवण का स्थान प्रथम है। सुने बिना मनन किसका करे और किस पर चले। महावीर ने कहा है-अक्रिया (मुक्ति) का प्रथम द्वार है-श्रवण। सुनना क्या है? वही नहीं जो परिचित, पुनः-पुनः सुना गया हो। इंद्रियों का रस बार-बार उन्हीं को दोहराने में है जो किया गया है। वैराग्य उसी को कहा है-दृष्ट, अनुश्रुत आदि विषयों का वितृष्ण हो जाना। अब उन्हें न दोहराकर नई दिशा में इंद्रियों की प्रतिष्ठा करना, सुनने का एक नया द्वार खोलना, अश्रव्य की बात सुनना। धर्म-कथा का अभिप्राय यही है कि जो समस्त इंद्रियों और मन से परे हैं, उसका श्रवण करना। उसके बोध से ही जीवन की सकल ग्रंथियाँ टूटती हैं।
गुरु नानक साहब ने श्रवण की महिमा जपुजी में गाई है-सुनने से दुःख-पाप का नाश होता है। सुनने से योग, मुक्ति, शरीर-भेद, शाश्वत का ज्ञान होता है। सुनने से अड़सठ तीर्थों का स्नान होता है।
 
श्रद्धा
यह तीसरा तत्त्व है। श्रद्धा शब्द से यहाँ अभिप्रेत है-विश्वास, तैयारी, आकांक्षा। धर्म को सुना और वह प्रीतिकर लगा। किंतु श्रद्धा आचरण की पूर्व तैयारी है। वर्षा से पूर्व किसान जैसे खेत को बीज बोने योग्य कर लेता है, वैसे ही ‘सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि’-ये जीवन विकास के सूत्र हैं। उनके अभाव में जीवन सरस, सुखद, स्वच्छ औरशांतिमय नहीं हो सकता। साधक कहता है-मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ और रुचिकर मानता हूँ।’ वह उन्हें देखता भी है जिन्होंने प्रत्यक्ष ऐसा जीवन जीया है और वे उस आनंद के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उसका मन आकांक्षा से भर जाता है कि निश्चित ही मैं भी इस मार्ग का अनुसरण कर इस दिशा को प्राप्त हो सकूँगा। जो फूल महावीर, बुद्ध और संतों में खिला, वह मेरे भीतर भी खिल सकता है, नहीं खिलने का कोई कारण नहीं है। कमर कसकर वह तत्पर हो जाता है।
(क्रमशः)