उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी

भंडारीजी ने घुड़सवार भेजने तथा जयाचार्य को पकड़ने के आदेश पर सीधी बातचीत करते हुए कहा-”आपको किसी ने असत्य सूचना दी है। आचार्य जीतमलजी मेरे गुरु हैं। उनके विषय में मैं विश्वास दिला सकता हूँ कि वे बिना आज्ञा के किसी को दीक्षित नहीं करते। आप नरेश हैं। शिकायत आने पर आपको जाँच कर लेनी चाहिए थी। सीधा पकड़ने का आदेश देकर तो एक समस्या को और निमंत्रण दिया गया है। लाखों मनुष्य उनके भक्त हैं। अवश्य ही वे उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करेंगे। आवश्यक होने पर प्राण निछावर करने में भी नहीं हिचकिचाएँगे। उस जनमेदिनी के सम्मुख आपके दस घुड़सवार क्या टिक पाएँगे? असफलता तो इसमें मिलेगी ही, किंतु अनावश्यक ही एक पूरा समाज राज्य-विरोधी हो जाएगा।“
नरेश चिंतित हुए। समग्र विषय के रहस्य तक पहुँचते हुए उन्होंने कहा-”हमने तो किसी साधारण संन्यासी की घटना समझा था। वे तुम्हारे गुरु हैं तथा प्रभावशाली जैनाचार्य हैं, इसका हमें कोई पता नहीं था। उक्त शिकायत के पीछे किसी षड्यंत्रकारी के हाथ भी हो सकते हैं, यह हमने ध्यान नहीं दिया।“ नरेश ने व्यग्रतापूर्वक पूछा-‘जो किया जा चुका है, उसे सुधारने के लिए अब हमें क्या करना चाहिए?’
भंडारी जी ने कहा-‘पूर्व आदेश-पत्र को रद्द करते हुए आप दूसरा आदेश-पत्र लिख दीजिए। मैं किसनमल को भेज देता हूँ। आप कुछ घुड़सवारों को उसके नेतृत्व में भेजने की कृपा करिए। उन्हें आदेश दीजिए कि पहले गए हुए घुड़सवारों को नया आदेश-पत्र दिखलाकर मार्ग से वापस लौटा लाएँ।’ नरेश ने उसी समय स्याही और कलम मँगाई। भंडारी जी के कथनानुसार नया आदेश-पत्र लिखा। घुड़सवारों के नए दल को किसनमलजी के नेतृत्व में जाने का आदेश दिया। इतना कार्य पूरा कर लेने के पश्चात् नरेश से आज्ञा लेकर भंडारीजी राजमहल से वापस लौटे। उन्होंने बड़े पुत्र किसनमलजी को आदेश-पत्र देकर सारी स्थिति समझाई और घुड़सवारों के दूसरे दल का नेतृत्व करने के लिए भेज दिया। पूरा दल घोड़ों पर सवार होकर जब वहाँ से प्रस्थान कर गया, तब कहीं भंडारीजी ने सुख की साँस ली।
किसनमलजी के दल को घुड़सवारों के लाडनूं पहुँचने से पूर्व ही उन तक पहुँचना था, अतः विश्राम आदि की अधिक चिंता न कर वे चलते ही रहे। घुड़सवारों के प्रथम दल को इतनी कोई शीघ्रता नहीं थी। वे आनंदपूर्वक विश्राम करते हुए मंजिलें काटते जा रहे थे। मार्ग के एक ग्राम में उनमें से किसी एक के परिचित परिवार में शादी थी, उसमें सम्मिलित होने के लिए वे वहाँ एक दिन रुक भी गए। इन सभी परिस्थितियों ने ऐसा सहयोग दिया कि किसनमलजी लाडनूं से काफी पहले ही उनके पास पहुँच गए। उन्होंने नरेश का नया आदेश-पत्र दिखलाकर उन सबको वहीं से वापस लौटा दिया। किसनमलजी ने अपने दल के साथ लाडनूं जाकर जयाचार्य के दर्शन करने का निश्चय किया।
नरेश के प्रथम आदेश के समाचार लाडनूं पहुँच चुके थे। वहाँ के श्रावक समाज में एक अपूर्व हलचल मच गई। सुरक्षा की व्यवस्था के लिए विचार-विमर्श हुआ। दूलीचंदजी दुगड़ ने उस व्यवस्था का भार अपने पर लिया। जयाचार्य को वे सुरक्षा की दृष्टि से विराजने के लिए अपनी हवेली में ले गए। आचार्यश्री अनाकुल और अविचल थे। स्थिति का सामना करने के लिए उनके अपने सात्त्विक उपाय थे। श्रावकों को भी उन्होंने विक्षुब्ध न होने को कहा, परंतु स्थितियों के दबाव का सामना वे भिन्न प्रकार से करने के अभ्यस्त थे। दोनों ने अपने-अपने प्रकार की पूरी तैयारी कर ली। हवेली की ओर जाने वाले सभी मार्गों की पूरी मोर्चाबंदी के साथ लोगों की टोलियाँ एकत्रित हो गईं। स्थानीय मोहिल राजपूतों का भी सहयोग लिया गया। उनमें अनेक तो दूलीचंदजी के मित्र थे। हवेली के दरवाजे पर वे प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को उद्यत थे। दूलीचंदजी की अपनी टोली मकान के अंदर जयाचार्य के आस-पास थी। उन सबका निश्चय था कि हमारे शरीर में प्राण रहेंगे तब तक जयाचार्य का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा।

(क्रमशः)