ध्रुवयोगसाधिका साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा

ध्रुवयोगसाधिका साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा

साध्वी अक्षयप्रभा
एक मित्र अपने प्रिय मित्र से कहता हैµ”अपनी मित्रता स्थायित्व को प्राप्त करेगी, यदि आप हमेशा सत्य बोलोगे। जिस दिन आप असत्य का सहारा लोगे, असत्य बोलोगे, अपनी मित्रता दूध-पानी की तरह अलग-अलग हो जाएगी, टूट जाएगी।“ विश्व में हर व्यक्ति की अपनी खुद की चाह हैµसत्य। जीवन में अनिवार्यतम तत्त्व सत्य है। वह जीवन की अनिवार्य माँग है। सत्य दर्शन की अदम्य, लालसा एवं दुःखमुक्ति की गहरी आशा से व्यक्ति साधना की दिशा में चरण धरता है। सम्यक् साधना से महावीरत्व की ओर अग्रसर होता है। लाडनूं की लाडेसर, मोदी कुल उजियारी मुमुक्षु स्मिता भी अहिंसा, संयम के महापथ पर प्रणत होने तत्पर हुई। स्मिता से स्मितप्रज्ञा फिर विश्रुतविभा मुख्य नियोजिका और आज तेरापंथ धर्मसंघ की नवम् साध्वीप्रमुखा के रूप में हमारे सामने है।
उत्तराध्ययन सूत्र की वृत्ति में चारित्र को परिभाषित करते हुए कहा हैµ‘चयरितकरं चारित्तम्’ अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों के समूह को तप, ध्यान आदि के द्वारा जो रिक्त करता है, वह चारित्र है। नवम् साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी एक ऐसी ही विरल आत्मा का नाम है जिन्होंने ‘अत्तहियट्ठयाए’ आत्महित के लिए, सर्वविरति के लिए अपने आपको वीर वचनों के प्रति सर्वात्मना समर्पित किया। उनकी विलक्षण मेधा ने जाना कि चारित्र की अनुपालना के लिए, आत्म उन्नति के लिए मानसिक हिंसा भी खतरनाक है। अतः अशुभ भावों के अंधकार को दूर करने, आत्मा एवं शरीर की भिन्नता रूप भेद, विज्ञान का दीप जलाने के लिए महासाधिका साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी प्रतिक्षण सावधान है।
संसार का हर प्राणी जीवन जीता है, मगर जीने जीने में बहुत अंतर होता है। महत्त्वपूर्ण बात है कौन कैसा जीवन जीता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन का क्षण-क्षण उद्देश्यपूर्ण है। स्वामी विवेकानंद ने कहा हैµ”लक्ष्य को ही अपना जीवन कार्य समझो। हर समय उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी के सहारे जीवित रहो।“ अप्रमत्त चेतना की धनी प्रमुखाश्रीजी खाते-पीते, सोते-उठते हर समय अपने लक्ष्य अस्तित्व की अनुभूति, वीतरागता का अनुभवµइन सबके पति जागरूक दिखाई देते हैं। आपका आचार, व्यवहार एवं जीवनशैली अनुपम है। आपकी साधना के अनेक रूप हैं पर साध्य एक ही हैµनिज से निज का साक्षात्कार। इसलिए ही जैन साधना के अनेक आयाम आपकी दिनचर्या के प्रमुख अंग बने हुए हैं।
ध्रुवयोगसाधिका

गतमोहाधिकाराणां,
आत्मनमधिकृत्यया।
प्रवर्तते क्रिया शुद्धा,
तदध्यात्मं जगुर्जिनाः।।

जैन शासन के यशस्वी उपाध्याय यशोविजयजी के ‘अध्यात्मसार’ ग्रंथ में जिनभाषित अध्यात्म की यह सुंदर परिभाषा ‘शुद्ध क्रिया ही अध्यात्म है’µआपके जीवन में पग-पग पर परिलक्षित हो रही है। भावनापूर्वक आगमानुसार आत्मचिंतन करना अध्यात्म साधना है। अध्यात्म साधना से पापकर्म क्षीण होते हैं, पुरुषार्थ का अकर्ष होता है तथा चित्त में समाधि की प्राप्ति होती है।
‘संजमधुवजोग जुत्ते’ इस आगम वाक्य के अनुसार अध्यात्म की योग भूमिका को पुष्ट करने के लिए, चारित्रशील जीवन निर्माण के लिए गुरुदेव तुलसी ने ध्रुवयोग का एक विशेष प्रयोग साधु-साध्वियों को लक्षित कर बतायाµ

प्रतिक्रमण प्रतिलेखन अर्हत् वंदना,
योगासन स्वाध्याय ध्यान अभिवंदना।
अथवा कायोत्सर्ग नियत जप-योग हों,
ये सातों ध्रुवयोग अमल उपयोग हों।।

अवश्य करणीय कार्यों को नियमित रूप से करने वाला ध्रुवयोगी कहलाता है। चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने हर क्षण जागरूक, प्रतिलेखन आदि कार्यों को नियमित रूप से करने वाला, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को सावधान होकर करने वाला तथा पाँच प्रकार के स्वाध्याय में रत साधु को ध्रुवयोगी कहा है। (दसवे0 जि0चू0 पृ0 34) तेरापंथ शासन की नवम् साध्वीप्रमुखा उत्तम अध्यात्म की आराधना करने, चारित्राचार की निर्मलता के लिए ध्रुवयोग की साधना को अपने प्रायोगिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान देती हुई प्रतिक्षण नजर आती है।
निर्ग्रन्थ की दैनंदिन चर्या का अवश्य करणीय आध्यात्मिक अनुष्ठान प्रतिक्रमण को भी इतने लंबे-लंबे विहारों के बावजूद भी आप विधिपूर्वक करते हैं। दोनों समय प्रतिक्रमण करते समय आपकी भावक्रिया, प्रतिक्रमण के विशेष अंगों की अनुपालना सबके भीतर नई प्रेरणा का अनुसंचार करने वाली होती है। आपका प्रतिक्रमण ‘तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे’ इस उत्तराध्ययन की वाणी को चरितार्थ करता हुआ दिखाई देता है। वह आपको एक विशिष्ट योगाधिकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
प्रतिलेखन भी एक शास्त्रीय अनुष्ठान है। षट्जीवनिकाय की रक्षा हेतु आपका प्रतिलेखन पूर्ण जागरूकता के साथ होता है।
आर्ष सूक्तों से संकलित अर्हत् वंदना का संगान करते समय भी आपकी एकाग्रता व तन्मयता सबके लिए प्रेरणास्पद बनती है। हम सबको भी इस ध्रुवयोग में सजग रहने के लिए प्रेरित करते रहते हैं।
शरीर को साधना के अनुकूल बनाने एवं कायक्लेश तप के द्वारा कर्मों का निर्जरण हेतु योगासन भी आपकी साधना का सहज अंग बना हुआ है।
साधना से सिद्धि के प्रसाद तक पहुँचने हेतु आपकी स्वाध्यायप्रियता भी सबके आकर्षण का हेतु बन रही है। सुबह-सुबह नियमित रूप से स्वाध्याय आपका रोजाना का क्रम है। लगता है श्रुत की इस लगाम के द्वारा ही आपने अपने मन की लगाम पर भी नियंत्रण कर लिया है।
आपकी हर क्रिया ध्यान-योगमय है। इस ध्यान चेतना से ही आपने आचार्य महाप्रज्ञ के ‘रहे भीतर जीए बाहर’ इस आध्यात्मिक सूत्र को चरितार्थ किया है। मन में अध्यात्म-मानसिक ध्यान, वचन में अध्यात्म-वाचिक ध्यान, काय में अध्यात्म-कायिक ध्यानµइस ध्यानत्रयी से ‘समणोऽहं’ का अंतर्नाद आपके भीतर गूँजता रहता है।
”आध्यात्मिक यात्रा को निर्बाध करने के लिए, साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए तथा अंतर्जगत में प्रवेश करने के लिए पहली प्रक्रिया हैµ‘जप’। गुरु तुलसी के ये शब्द आपकी व्यक्तिगत साधना में मुखर हो रहे हैं। आस्था, एकाग्रता व निरंतरता से आप्लावित आपकी जप साधना आश्चर्यकारी है। इतने व्यस्त समय में भी जप कार्य में आपकी नियमितता सबको टाइम मैनेजमेंट का पाठ पढ़ा रही है।
संन्यास तेजस्वी कैसे बने? अध्यात्म तेजस्वी कैसे बने? उत्तर हैµध्रुवयोगों की साधना से। हे साध्वीप्रमुखे! आपने अपने आसपास अप्रमाद के सिपाही को खड़ा रखा है। फलस्वरूप आपकी ध्रुवयोगों की साधना निर्बाध चल रही है। इसी से ही आपका संन्यास, आपका अध्यात्म तेजस्विता की ओर अग्रसर है। ध्रुवयोगों की साधना से उत्तम अध्यात्म की आराधना करते हुए आप निरंतर लक्षित मंजिल की ओर अग्रसर हैं।
µ साध्वाचार की सुदृढ़ता से अनुपम दर्शनाचार की आराधना करते हुए आप संन्यास को सिद्ध कर रहे हैं।
µ मन-वचन-काय गुप्ति रूप उत्तम अध्यात्म से अनुपम चारित्राचार की आराधना करते हुए आप संन्यास को सिद्ध कर रहे हैं।
प्रथम चयन दिवस पर ‘ध्रुवयोग साधिका’ के रूप में, मैं आपकी अभ्यर्थना कर रही हूँ। मुझे भी आपसे ऐसा आशीर्वर मिले कि मेरी भी ध्रुवयोगों की अखंड साधना अनवरत चलती रहे।
विभूतिसंपन्न साधिका
श्रीकृष्ण कहते हैंµस्त्रियों में मेरी सात विभूतियाँ सन्निहित हैंµ‘कीर्तिः श्रीवीक् च नारीणां, स्मृतिमेधा धृतिः क्षमा’ (गीता)।
आध्यात्मिक अभिरुचि की प्रतीक कीर्ति आपकी चरित्रनिष्ठा से स्वतः ही चारों ओर फैल रही है।
श्री का अर्थ लक्ष्मी, सुंदरता है, आप तन से भी सुंदर हैं और मन से भी सुंदर हैं एवं आपका अध्यात्म भी सुंदरतम है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तपरूपी लक्ष्मी आपकी सहज सहचरी बनी हुई है।
आपकी वाक्शक्ति भी विलक्षण है। बोलने में नएपन की खोज आपकी प्रकृति है।
विलक्षण है आपकी स्मृति। क्यों? कैसे? किसलिए? कब आदि जिज्ञासाओं का सहज समाधान आपके पास है।
आपकी धारणाशक्ति, धृति भी प्रबल है। ‘मनोनियामिका शक्तिः धृतिः’ स्व नियंत्रण की क्षमता आपकी अद्भुत है। आपके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व इन सब विभूतियों का समवाय है।
विभूतिसंपन्न साधिका के रूप में चयन दिवस के उपलक्ष्य में आपकी अभ्यर्थना कर रही हूँ।
आशीर्वर माँगती हूँ आपकी साधना की किरणें हमारे जीवन को भी आलोकित करें।
प्रज्ञापुरुष महाप्रज्ञ की महनीय कृति को नमन! नमन! नमन!