मनोनयन पर श्रद्धार्पण

मनोनयन पर श्रद्धार्पण

रंग-बिरंगी इस दुनिया में,
तुम सरोज बन विकसाई।
शैशव में वैराग्य क्षितिज पर,
बन सविता तुम उदियाई।।

नए तीर्थ के संचालन का,
अवसर प्रथम मिला तुमको।
अपनी स्मितप्रज्ञा के बल पर,
बाँध लिया सबके मन को।।

प्रतिभा-पौरुष-पुण्योदय से,
वर कर्तृत्व उभर आया।
देश-विदेशों की धरती पर,
गण का परचम फहराया।।

बना दिया मजबूत धरातल,
समण श्रेणी (णि) का श्रेयस्कर।
अग्रिम मंजिल पाने को फिर,
ललक उठा मानस मधुकर।।

देख अनागत स्वर्णिम तेरा,
कहा तथास्तु तुलसी ने।
दो गुरुओं के साये में तुम,
लगी विकास के पट बुनने।।

महाप्रज्ञ वाङ्मय-संपादन,
आगम-अनुशीलन-लेखन।
और व्यवस्थागत-कार्यों में,
किया समय का विनियोजन।।

महाप्रज्ञ ने किया प्रतिष्ठित,
मुख्य नियोजिका पद पर।
सफल किया विश्वास सुगुरु का,
विश्रुत हुई विभा सत्वर।।

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी,
बनी रही जीवन आदर्श।
सीख प्रशासन के गुर गहरे,
सतत किया अपना उत्कर्ष।।

अगुआई करने का हुनर,
जन्मजात लेकर आई।
हर मुकाम पर मौका पाया,
बजी सुयश की शहनाई।।

पढ़ अतीत के पृष्ठ सुनहले,
महाश्रमण ने विरुदाया।
सतियों की सरताज बनाकर,
जोड़ दिया अध्याय नया।।

सफर सुहाना रहा आज तक,
नयन-युगल साक्षी भरते।
बने अनागत शुभ से शुभतम,
सपने सदा रहे फलते।।

मनोनयन की पावन बेला,
खुशियों के जलजात खिले।
रहो निरामय बनो चिरायु,
अंतर्दिल से स्वर निकले।।

टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में,
भाव उकेरे कागज पर।
समय मिले तो कर लेना तुम,
चक्षुःपात जरा इन पर।
श्रद्धावलयित पुष्प मानकर,
स्वीकारो श्रमणी शेखरे!