उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य स्थूलभद्र
आचार्य स्थूलभद्र ब्राह्मणपुत्र थे। उनका जन्म वी0नि0 116 (वि0पू0 354) में पाटलिपुत्र में हुआ था। पाटलिपुत्र मगध की राजधानी थी। स्थूलभद्र के पिता का नाम शकडाल एवं माता का नाम लक्ष्मी था। शकडाल के नौ संतानें थी। स्थूलभद्र और श्रीयक दो पुत्र थे। यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदिन्ना, सेणा, वेणा, रेणाये सात पुत्रियाँ थीं।
संसार-विरक्त अमात्य-पुत्र स्थूलभद्र के गतिशील चरण बढ़ते गए। आचार्य संभूतविजय के पास पहुँचकर स्थूलभद्र ने वी0नि0 146 (वि0पू0 324) में दीक्षा ग्रहण की। मुनि जीवन में प्रवेश पाकर स्थूलभद्र सबके लिए वंदनीय बन गए। उस समय उनकी आयु तीस वर्ष की थी। आचार्य संभूतविजय की श्रमण-मंडली में स्थूलभद्र विनयवान्, गुणवान्, बुद्धिमान् श्रमण थे। उन्होंने संभूतविजय से आगम-साहित्य का गंभीर अध्ययन किया और मुनिचर्या का विशेष प्रशिक्षण पाया। धैर्य, स्थैर्य, क्षमा, शांति, समता आदि गुणों का विकास कर वे आचार्य संभूतविजय के अनंत विश्वासपात्र बने।
एक दिन विनयवान्, गुणवान् मुनि स्थूलभद्र ने पूर्वपरिचिता कोशा गणिका के भवन में पावस बिताने की इच्छा गुरु के समक्ष प्रकट की। आचार्य संभूतविजय ने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दी। मुनि अपने संकल्पित लक्ष्य की ओर चल पड़े। स्थूलभद्र कोशा की उसी चित्रशाला में पहुँचे, जहाँ वे पहले बारह वर्ष रह चुके थे।
कोशा ने स्थूलभद्र का अभिनंदन किया। स्थूलभद्र ने कोशा से चित्रशाला में चतुर्मास बिताने के लिए आज्ञा माँगी। कोशा बोली‘प्राणदेव! आज आपके पधारने से मैं धन्य हो गई हूँ। यह चित्रशाला आपकी ही है। सहर्ष आप इसमें निवास करें।’
गणिका कोशा की आज्ञा से मुनि स्थूलभद्र का चित्रशाला में चातुर्मास प्रारंभ हुआ। लोगों की दृष्टि में जो कामस्थल था वह स्थूलभद्र के पदार्पण से धर्मस्थल बन बया।
कोशा स्थूलभद्र के लिए प्रतिदिन षट्र्सयुक्त भोजन तैयार करती, बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित होकर उनके सामने उपस्थित होती। विविध भाव-भंगिमाओं के साथ नृत्य करती। पूर्वभोगों की स्मृति कराती और वह यथासंभव उपाय से उन्हें मुग्ध करने का प्रयत्न करती।
स्थूलभद्र अपने व्रतों में हिमालय की भाँति अचल थे। उनके भीतर ब्रह्मचर्य का तेज चमक रहा था। कोशा के कामबाण विफल हो गए। वह स्थूलभद्र की संयम साधना के सामने झुकी और एक दिन नतमस्तक होकर कहने लगी‘मुने! मुझे धिक्कार है। मैंने आपको अपने व्रत से विचलित करने के लिए जो भी प्रयत्न किए हैं, उनके लिए आप क्षमा करें।’
स्थूलभद्र मुनि ने भी कोशा को धर्मोपदेश दिया। अध्यात्म का मर्म समझाया। कोशा भी जीवन-विज्ञान के रहस्य को समझकर व्रतधारिणी श्राविका बनी और विकल्प के साथ जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया।
पावस सानंद संपन्न हुआ। स्थूलभद्र कसौटी पर खरे उतरे। नवनीत आग पर चढ़कर भी नहीं पिघला। काजल की कोठरी में रहकर भी अतुल मनोबली मुनि स्थूलभद्र बेदाग रहे। वे आचार्य संभूतविजय के पास लौट आए।
आचार्य सात-आठ पैर स्थूलभद्र के सामने चलकर आए। ‘दुष्कर-महादुष्कर क्रिया के साधक’ का संबोधन देकर कामविजेता स्थूलभद्र का सम्मान किया।
द्वादश वर्षीय दुष्काल के कारण श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न हो रही थी। उसे संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र में महान् श्रमण-सम्मेलन हुआ। इस आयोजन के व्यवस्थापक स्थूलभद्र स्वयं थे। ग्यारह अंकों का सम्यक् संकलन हुआ। आगम-ज्ञान का विशाल भंडार ‘दृष्टिवाद’ किसी को याद नहीं था। दृष्टिवाद की अनुपलब्धि ने सबको चिंतित कर दिया। आचार्य स्थूलभद्र में असाधारण क्षमता थी। ज्ञानसागर की इस महान क्षति-पूर्ति के लिए संघ के निर्णयानुसार वे नेपाल में भद्रबाहु के पास विद्यार्थी बनकर रहे एवं उनसे समग्र चतुर्दश पूर्व की ज्ञान-राशि को अत्यंत धैर्य के साथ ग्रहण कर उन्होंने श्रुतसागर से टूटती दृष्टिवाद की सुविशाल धारा को संरक्षण दिया। अर्थ-वाचना दस पूर्व तक ही वे उनसे ले पाए थे। अंतिम चार पूर्व की उन्हें पाठ-वाचना मिली। वीर निर्वाण के 160 वर्ष के आसपास संपन्न यह सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण वाचना थी।