मनोनुशासनम्
(22) शरीर-गण-उपधि-भक्तपान कषायाणां विसर्जनं व्युत्सर्गः।।
(23) ध्यानाय शरीर-व्युत्सर्गः।।
(24) विशिष्टसाधनायै गण-व्युत्सर्गः।।
(25) लाघवाय उपधि-व्युत्सर्गः।।
(26) ममत्वहानये भेदज्ञानाय च भक्तपान-व्युत्सर्गः।।
(27) सहजानंदलब्धये कषाय-व्युत्सर्गः।।
(22) शरीर, गण, उपाधि, भक्तपान और कषाय का विसर्जन करने को व्युत्सर्ग कहा
जाता है।
(23) ध्यान के लिए शरीर का व्युत्सर्ग किया जाता है। उसे त्यक्त, शिथिल, निश्चेष्ट और निक्रिय कर देने पर उसका भान नहीं होता और तनाव समाप्त हो जाता है।
(24) विशिष्ट साधना के लिए गण का व्युत्सर्ग किया जाता है। जो विशिष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र संपन्न हों, विशिष्ट शरीर-बल संपन्न हों तथा गुरु द्वारा अनुज्ञात हों वे ही व्यक्ति अकेले रहकर विशिष्ट साधना करने के अधिकारी हैं।
(25) लाघव (हल्कापन) के लिए उपाधिµवस्त्र आदि उपकरणों का त्याग किया जाता है। बाह्य-उपाधि जितने अधिक व्यक्त होते हैं, उतनी ही लघुता बढ़ती है और वे जितने अधिक होते हैं, उतना ही भार बढ़ता है।
(26) ममत्व की हानि तथा भेदज्ञान के लिए आहार-पानी का त्याग किया जाता है। शरीर जो है, वह मैं नहीं हूँ और मैं जो हूँ, वह शरीर नहीं हैµऐसा भेदज्ञान होने से ममत्व की हानि होती है और ममत्वहीन होने से आत्मशक्ति का विकास होता है। भक्त-पान का त्याग उसके विकास में बहुत सहायक है।
(27) सहज आनंद या वीतराग भाव की प्राप्ति के लिए कषाय का त्याग किया जाता है। कषाय के द्वारा आत्मा का सहज आनंद विकृत हो जाता है। उसकी प्राप्ति कषाय दूर होने पर ही होती है।
व्युत्सर्ग
विसर्जन साधना का रहस्य है। जो विसर्जन के महत्त्व को नहीं जानता, वह साधना के मर्म को नहीं जानता। अहंकार और ममकारµये दोनों साधना के बाधक तत्त्व हैं। साधक की पहली कसौटी हैµअहंकार और ममकार से मुक्त होना।
शरीर-व्युत्सर्ग
ममकार का मूल बीज शरीर है। साधना की पहली कक्षा हैµशारीरिक ममत्व का विसर्जन। शारीरिक ममत्व को विसर्जित किए बिना शरीर के भीतर अवस्थित चेतन सत्ता की अनुभूति नहीं हो सकती। दीपशिखा पर जैसे ढक्कन पड़ा है, उसी प्रकार शरीर और उसके सहचारी मन और प्राण के द्वारा चैतन्य की शिखा ढकी पड़ी है। शरीर की चंचलता और ममत्व का जैसे-जैसे विसर्जन होता है, वैसे-वैसे हमारी उन्मुखता चैतन्य की ओर होती है। ध्यान का लक्ष्य है चैतन्य की उपस्थिति का सतत अनुभव करना। उसके लिए शरीर की चंचलता और ममत्व, ये दोनों त्याज्य हैं।
गण-व्युत्सर्ग
साधक अकेले में रहे या संघ में? इस प्रश्न का भगवान् महावीर ने अनैकांतिक उत्तर दिया है। भगवान् ने कहाµसाधना गाँव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है और वह गाँव में भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं हो सकती। जिस व्यक्ति में आत्माभिमुखता की तीव्रता नहीं है, उसके लिए अरण्य भी गाँव जैसा है और जिस व्यक्ति में आत्माभिमुखता की तीव्रता है, उसके लिए गाँव भी अरण्य जैसा है। इसी प्रकार आत्माभिमुख व्यक्ति संघ में रहकर भी अकेला रह सकता है। वह अकेले में रहकर भी वैचारिक अकेलेपन का अनुभव नहीं कर पाता।
तत्त्व-विचार की भूमिका में उक्त चिंतन की यथार्थता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किंतु मनुष्य की कठिनाई है कि वह पहले ही चरण में तत्त्व-चिंतन और व्यवहार की भूमिका में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाता। संघीय जीवन में व्यावहारिक कठिनाइयाँ अनायास ही उभर आती हैं। उसमें विभिन्न रुचियाँ, संस्कार, चिंतन और मानदंड होते हैं। वे सामान्य साधना में विक्षेप डालते भी हैं या नहीं भी डालते। किंतु उसकी विशिष्ट प्रक्रियाओं व प्रयोगों में वे साधक नहीं होते। इसीलिए साधना की विशिष्ट प्रक्रियाओं का अभ्यास करने वाला व्यक्ति संघीय जीवन से मुक्त होकर चलता है।
दूसरों के लिए कुछ करना बहुत बड़ी बात है और केवल अपने लिए करना स्वार्थ है, इस सत्य को अस्वीकृति नहीं दी जा सकती। किंतु इस तथ्य पर भी आवरण नहीं डाला जा सकता कि संघमुक्त साधना करने का संबंध प्रयोजन से नहीं, पद्धति से है। एकांत में साधना करने वाले का प्रयोजन अपने लिए और दूसरों के लिए इन दोनों की समष्टि में व्याप्त है। वह केवल स्वार्थ ही नहीं है, किंतु जैसे एक विद्यार्थी, कवि, लेखक या वैज्ञानिक को अपने कार्य के लिए शांत-नीरव स्थान की अपेक्षा होती है, वैसे ही आत्मानुभूति की गहराई में पैठने वाले साधक को एकांत की अपेक्षा होती है। शांत सरोवर में कोई ढेला न फेंके इस दृष्टि से उसे अकेला रहना आवश्यक होता है। प्रायोगिक काल में अकेलेपन की उपयोगिता समझ में आती है। सत्य उपलब्ध होने पर संघ या अकेलेपन का कोई भेद नहीं होता।
उपधि और भक्तपान व्युत्सर्ग
पदार्थों का संग्रह और उनका ममत्वµये दोनों अंतरानुभूति के विघ्न हैं। पदार्थ स्वतः विघ्न नहीं हैं किंतु उनका संग्रह लोभ के कारण होता है, इसलिए वह विघ्न हो जाता है। ममत्व के बिना संग्रह होता ही नहीं और जहाँ ममत्व होता है वहाँ अंतरानुभूति का स्थान बाह्यानुभूति ले लेती है। उस स्थिति में साधक की चेतना मूर्च्छा से बोझिल बन जाती है। मूर्च्छा का विसर्जन अर्थात् संग्रह का विसर्जन। यह विसर्जन की प्रक्रिया आगे बढ़ते-बढ़ते पदार्थों के पूर्ण त्याग तक पहुँच जाती है। भोजन के बिना शरीर का निर्वाह नहीं हो सकता, किंतु इस प्रक्रिया में उसका भी आंशिक त्याग प्राप्त होता है और एक बिंदु आने पर सदा के लिए भोजन का विसर्जन कर दिया जाता है। दैहिक ममत्व का विसर्जन करने के लिए ऐसा करना बहुत आवश्यक है।
ममत्व-विसर्जन हो जाए, फिर संग्रह-विसर्जन की क्या आवश्यकता है? इस चिंतन का बाह्य जितना सुंदर है, उतना अंतस् यथार्थ नहीं है। ममत्व-विसर्जन की कसौटी असंग्रह है। संग्रह है और ममत्व नहीं है, यह सामान्य स्थिति नहीं है। संग्रह नहीं होने पर ममत्व नहीं होता, यह व्याप्ति भी नहीं है। इन दोनों रेखाओं के मध्य में जो देखा जा सकता है, वह इतना ही है कि ममत्व-विसर्जन के लिए संग्रह का विसर्जन किया जाए और संग्रह-विसर्जन की यथार्थता के लिए ममत्व-विसर्जन का अभ्यास किया जाए।
क्या कोई शरीरधारी ऐसा हो सकता है, जो शरीर को धारण करे और उसकी माँग को पूरा न करे? भोजन शरीर की आवश्यकता माँग है। उसे पूरा करना साधक के लिए भी अनिवार्य है। एक ओर शरीर की माँग को पूरा करने का प्रश्न है तो दूसरी ओर उसके ममत्व (देहाध्यास) के विसर्जन का प्रश्न है। शारीरिक ममत्व का विसर्जन करने के लिए यह आवश्यक है कि साधक शरीर की अपेक्षा को पूरा करे, किंतु जितनी अपेक्षा हो उसे अविकल रूप से पूरा न करे। यह देह और आत्मा के भेदज्ञान की ओर प्रगति होने की व्यावहारिक कसौटी है।
कषाय-व्युत्सर्ग
अनुकूल स्थिति और इष्ट वस्तु का योग होने पर मनुष्य को सुख की अनुभूति होती
है। प्रतिकूल परिस्थिति और अनिष्ट का योग होने पर उसे दुःख का अनुभव होता है। साधारण मनुष्य इसी सुख-दुःख के चक्र में परिभ्रमित रहता है। सुख के आगे आनंद नाम की कोई
वस्तु है, यह प्रश्नचिÐ भी उसके मन में नहीं उभरता। प्रतिकूल परिस्थिति और अनिष्ट के
योग में भी मनुष्य के आनंद का प्रवाह अविच्छिन्न रह सकता है, यह कल्पना सामान्यतः नहीं
हो सकती। किंतु आनंद उसी स्थिति का नाम है जो बाह्य के संयोग या वियोग के आधार पर घटित नहीं होती।
हर मनुष्य के अंतस् की गहराई में आनंद की असीम धारा प्रवाहित होती है किंतु प्राणिक और मानसिक आवरणों से वह आच्छन्न है। मोह (कषाय) की राख से उसके अस्तित्व की लौ ढंकी हुई है, इसलिए उसका होना नहीं होने जैसा है।
ध्यान आदि के अभ्यास से प्राणिक और मानसिक आवरण का विघटन करना काफी प्रयत्न-साध्य है। आत्मानुभूति की गहराई होने पर प्राणिक और मानसिक आवरण विच्छिन्न हो जाते हैं। आत्मानुभूति की गहराई जब निरंतर हो जाती है, उस समय मोह की ग्रंथि भी खुल जाती है और मनुष्य सहज आनंदानुभूति के रस में परिप्लावित हो जाता है।
(क्रमशः)